श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 30
सूत्र - 22
Description
भाव लिंग को न मानने वालों को भाव लिंग कभी मिलेगा नहीं। हमारे भीतर सम्यग्दर्शन, चारित्र का उत्पन्न होना वैस्रसिक परिणमन है। प्रायोगिक ही धर्म चलता है। गुरु और शिष्य के बीच में कोई तीसरा आना ही नहीं चाहिए। पुरुषार्थ करना ही हमारे हाथ में है। आगम और गुरु की आज्ञा का पालन ही आपके अधिकार क्षेत्र में है। विद्वान का संस्मरण। सिद्धि किये हुए व्यंतरो की बात सत्य नहीं है। प्रायोगिक को समझने के लिए आचार्य अकलंकदेव का राजवार्तिक पढ़ें।
Sutra
वर्तना-परिणाम-क्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य ॥5.22॥
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WINNERS
Day 30
15st May, 2023
चन्द्र लेखा जैन
वारासिवनी
WINNER-1
Madhu Jain
Bhopal
WINNER-2
अशोक कुमार प्रधान
धामनोद
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
भीतर के कषाय की हानि से उत्पन्न होने वाले गुणस्थान कौनसा परिणमन है?
अनादि परिणमन
वैस्रसिक परिणमन*
प्रायोगिक परिणमन
अकाल परिणमन
Abhyas (Practice Paper):
Summary
हमने जाना कि जो लोग भाव लिंग को कुछ नहीं मानते
और बाहरी क्रियाओं को केवल द्रव्य लिंग मानते हैं
उन्हें भाव लिंग कभी नहीं मिलेगा
जैसे एकदम से गर्मी होना, ठंडी हवाएँ चलना आदि वैस्रसिक परिणमन हैं
उसी प्रकार कर्मों के मंद उदय, उपशमन आदि भी वैस्रसिक हैं
वैस्रसिक तो भीतर से घटित होने वाली प्रक्रिया है
ये हमारे हाथ में नहीं हैं
इसके परिणमन को प्रत्यक्ष ज्ञानी ही जान सकते हैं
अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के मिलने पर कार्य होने की संभावना प्रायोगिक है, पर कार्य का होना वैस्रसिक
भाव लिंग प्राप्त करने के लिए कोई आगम और पुरुषार्थ नहीं है
आचार्य अकलंकदेव राजवार्तिक में, गुरु के कहे अनुसार
शीलव्रत पालन
आगमानुसार भावना करना
ध्यान एवं अध्ययन आदि
प्रायोगिक पुरुषार्थ करने के लिए कहते हैं
पर आज के लोग थोडा सा संयम लेकर ही भाव लिंग को खोजते हैं
जबकि भीतर का सम्यग्दर्शन, चारित्र, गुणस्थान आदि वैस्रसिक हैं
ये काल द्रव्य का उपकार है कि उसके निमित्त से हो रहे परिणामों में
हम वैस्रसिक और प्रायोगिक परिणाम में अंतर कर सकें
व्यवहार एवं धर्म प्रायोगिक ही चलता है
सम्यग्दर्शन भी ग्रहण करने पर प्रायोगिक हो जाता है
मानो गुरु के कहने पर हमने इसके लिए सब कुछ किया
परन्तु इसके लिए तो अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व आदि का अभाव होना चाहिए
तो सम्यग्दर्शन ग्रहण करने के बाद,ये आभाव हो भी सकते है
और नहीं भी
कोई guarantee नहीं है
समयसार ज्ञानी अनेकों पंडित मानते हैं कि
तत्त्व का निर्णय करने से
आत्मा की अनुभूति करने से सम्यग्दर्शन होगा
अन्यथा नहीं
पर ये सब भी प्रायोगिक ही है
हमने जाना कि अनादि और सादि परिणामों में
सादि ही काम का है
क्योंकि वही घटित हो सकता है
जैसे अनादिकालीन मिथ्यात्व में सम्यक्त्व हो सकता है
लेकिन यह वैस्रसिक है
प्रायोगिक नहीं
हम सिर्फ उसके लिए पुरुषार्थ कर सकते हैं
हमने जाना कि परिणाम के दो अर्थ होते हैं
पहला परिणमन
और दूसरा result
हमारे हाथ में पुरुषार्थ करना है, result नहीं
जैसे IIT, NEET के लिए पढ़ना और exam देना
और इसके लिए बार-बार प्रयास करना पुरुषार्थ है
इसका result हमारे हाथ में नहीं है
इसी प्रकार गुणस्थान के लिए बार-बार पुरुषार्थ करना होगा
मुनिश्री ने समझाया कि शिष्य को गुरु की बात मानकर पुरुषार्थ करना चाहिए
लेकिन पंडित आदि लोग जो उन्हें जैन दर्शन से ही हटा दें
उन्हें बीच में नहीं लाना चाहिए
उसे ज्ञान के साथ पुरुषार्थ करते हुए
उसके परिणाम की अनुभूति के लिए तत्पर रहना चाहिए
हमारे अधिकार क्षेत्र में आगम और गुरु की आज्ञा का पालन ही है
इसलिए कौन सम्यग्दृष्टि है या किसकी पूजा से नरक जायेंगे आदि
गणित को रोक कर हमें आगमानुसार आचरण करना चाहिए
सम्यग्दर्शन के परिणाम रूप से हमें शांति और अनुभूति होनी चाहिए
हमें किसी का result declare नहीं करना चाहिए
एक संस्मरण के माध्यम से मुनिश्री ने बताया कि
इस तरह result बताने वाली चीजों के प्रमाण भी झूठ का पुलिंदा होते हैं
किसी के ऊपर आये देवता से एक चोटी के पढ़े-लिखे विद्वान ने पूछा कि
यहाँ कौन-कौन सम्यग्दृष्टि है?
उस देवता ने कहा कि अमुक महाराज और वर्णी जी
अन्य कोई सम्यग्दृष्टि नहीं है
बात को प्रमाणिक मान कर उन्होंने उसे किताबों में लिखवा दिया
विचारणीय है कि क्या वास्तव में यह देवता ने कहा था?
क्या देव सत्याणुव्रत धारी था?
उसको कितना पता था, उसकी limit कितनी थी?
क्या वह वास्तव में समवशरण गया?
अगर गया तो वापस आपकी पकड़ में कैसे आया?
ये सब अस्तित्वहीन बातें हैं
मुनिश्री ने उन पंडितजी को समझाया कि
सिद्ध किये हुए व्यंतरों की बात को शास्त्र का प्रमाण बताना उचित नहीं