श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 61
सूत्र -45
सूत्र -45
उपशान्तमोहक्षपक। क्षीणमोह। जिनाः। स्वस्थानगत और समुद्घातगत जिन। निर्जरा क्या है? अपनी विशुद्धि कैसे बढ़ाएं? अप्रत्याख्यान कषाय। आत्मा का आनन्द।
सम्यग्दृष्टिश्रावक-विरतानन्त-वियोजक- दर्शनमोह-क्षपकोप-शमकोपशान्त-मोह क्षपक-क्षीणमोह-जिना:क्रमशोऽ-संख्येय-गुण-निर्जराः॥9.45॥
13, Feb 2025
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क्षीणमोह से असंख्यात गुणी निर्जरा निम्न में से किसकी होगी?
उपशामक की
क्षपक की
जिन की*
श्रावक की
निर्जरा के स्थानों के प्रकरण में हमने जाना
उपशान्त-मोह से असंख्यात गुणी निर्जरा
क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले जीव की होती है।
यानि विशुद्धि के परिणामों में इतना अन्तर होता है कि
ग्यारहवें गुणस्थान से भी अधिक निर्जरा
आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान वाले जीव की होती है
जो क्षपक श्रेणी पर आरोहण करता है
क्योंकि वह कर्मों का क्षय करता हुआ जाता है।
जब वह बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है
तो क्षीणमोह कहलाता है
यानि उसका मोह नष्ट हो चुका होता है।
उनकी निर्जरा क्षपक से असंख्यात गुणी होती है।
और उनसे भी असंख्यात गुणी निर्जरा
जिन यानि अरिहन्त की होती है।
यानि जिन्हें केवलज्ञान हो गया है
ऐसे अरिहन्त भगवान की भी निर्जरा होती है।
इस प्रकार निर्जरा के दस स्थान बनते हैं-
सम्यग्दृष्टि,
श्रावक,
विरत,
अनन्तवियोजक,
दर्शनमोह क्षपक
चारित्रमोह उपशामक,
ग्यारहवें गुणस्थान वाला उपशान्त मोह,
क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने वाला क्षपक,
बारहवें गुणस्थान वाला क्षीणमोह,
और दसवाँ जिन।
जिनमें निर्जरा असंख्यात गुणी-असंख्यात गुणी होती है।
करण परिणाम की ज़रुरत
आठवें-नौवें गुणस्थानों में,
और क्षपक या उपशम श्रेणी पर चढ़ने के लिए तो होती है।
लेकिन जिन्हें ग्यारहवाँ या बारहवाँ गुणस्थान में,
और जिन बनने के बाद इनकी जरुरत नहीं रहती।
जिन के दो भेद होते हैं- स्वस्थानगत जिन और समुद्घातगत जिन
जो समुद्घात करते हैं, उन्हें समुद्घातगत केवली कहते हैं
जिनकी निर्जरा सामान्य जिन से अधिक होती है,
यानि केवली समुद्घात में कर्मों का और ज्यादा क्षय होता है।
इसे जोड़ने से निर्जरा के ग्यारह स्थान हो जाते हैं।
संख्या की अपेक्षा तो
प्रदेश निर्जरा आगे-आगे अधिक होती है
लेकिन उसका काल आगे-आगे कम-कम होता जाता है।
व्रत, ध्यान, तप, उपसर्ग-सहना, परिषह-सहना
इन सबसे जीव निर्जरा में वृद्धि करते हैं।
भीतर ध्यान से कर्मों के जलने से आत्मा की विशुद्धि बढ़ती है,
जिससे उसका गुणस्थान बढ़ता जाता है।
यह आत्म-विशुद्धि बढ़ाते हुए, कर्म शोधन की प्रक्रिया होती है।
निर्जरा में आत्मा में चिपके हुए कर्म झड़ते हैं,
उनका एकदेश क्षय होता है।
इसके लिए हमें करण परिणाम करने पड़ेंगे।
तभी हम उपशम सम्यग्दर्शन, श्रावक दशा, विरत दशा जैसी उपलब्धियाँ हासिल कर सकेंगे।
ये उपलब्धियाँ विशुद्धि से होती हैं।
इसलिए आचार्य श्री हमेशा विशुद्धि बढ़ाने के लिए कहते थे
उसी से हमें भीतर से व्रत लेने का भाव आएगा।
विशुद्धि बढ़ाना यानि कषायों की कमी करना।
व्रतों के प्रति उत्साह बढ़ाना, दृढ़ता बढ़ाना।
उससे हमारे अन्दर कषायों की कमी होगी,
जिससे विशुद्धि बढ़ेगी।
जैसे ही सम्यग्दर्शन होता है
अनन्तानुबन्धी कषाय का अभाव हो जाता है।
तब अप्रत्याख्यान कषाय आती है।
एक होते हुए भी उस कषाय की विशुद्धि इतनी होती है
कि गन्ने या नारियल की तरह
उसे छीलते जाएँ, छीलते जाएँ।
जितना छीलते जाएँगे, उतनी इसकी कमी से विशुद्धि बढ़ेगी
और हम श्रावकपने को प्राप्त कर पाएँगे।
उसके बाद प्रत्याख्यान कषाय को भी ऐसे ही छीलना होगा।
तभी हम संयम ले पाएँगे।
कषाय क्षीण करने की शक्ति बढ़ने से
आत्मविशुद्धि बढ़ती है।
यही आत्म-विशुद्धि आत्मा का आनन्द कहलाती है।
व्रती इसी आनन्द में आनन्दित रहता है।
जिसे भीतर से यह ज्ञान नहीं होता
वह बाहरी साधन न मिलने पर घबरा जाता है।
पर साधक जानता है कि बाहरी साधन
हमारी विशुद्धि को कम ही करते हैं,
बढ़ा नहीं सकते
इसलिए वह उनमें लिप्त नहीं होता।
और स्वयं में आनन्दित रहता है।
जैसे लोग एक, दो, तीन M.A. आदि course करते रहते हैं
ऐसे ही नौंवा अध्याय गुप्ति, समिति, चारित्र, तप आदि
course में ही बटा हुआ है,
जिनमें साधक लगा रहता है।
हम भी इन्हें खोजते जाएँ
और अपनी विशुद्धि बढ़ाते जाएँ।
जितनी हमारे व्रत और संयम की वृद्धि होगी
निर्जरा अपने आप बढ़ती जाएगी।