श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 37
सूत्र - 29
Description
लक्षण बहुत बहुमूल्य है। द्रव्य का लक्षण सत् है। सत् से ही सत्ता बनती है। सत् या सत्ता का कभी विनाश नही होता। आस्तिक और नास्तिक का सही रूप। अस्ति को मानने वाला आस्तिक होता है। आस्तिक और नास्तिक की व्यापकता।
Sutra
सद्द्रव्य-लक्षणम् ॥5.29॥
Watch Class 37
WINNERS
Day 37
02nd Jun, 2023
श्रीमती शीलमणी सिंघई
सागर
WINNER-1
Anita Jain
Baraut
WINNER-2
Sunita Jain
Jaipur
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
निम्न में से कौनसा लक्षण सभी द्रव्यों में घटित होगा?
चेतना
सत्*
स्पर्श
अमूर्तपना
Abhyas (Practice Paper):
Summary
सूत्र उनतीस सद्-द्रव्य-लक्षणम् में हमने जाना कि द्रव्य का लक्षण सत् है
जैनाचार्य पदार्थ और द्रव्य की व्यवस्था को लक्षण से जानते हैं
ये कभी नष्ट नहीं होता
इसके माध्यम से हम द्रव्य या वस्तु को पहचानते हैं
लक्षण से जानी हुई वस्तु लक्ष्य कहलाती है
तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय में हमने जाना था कि
लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषों से रहित होता है
और किसी भी तर्क सिद्धांत से नहीं टूटता और बाधित नहीं होता
द्रव्य के सत् लक्षण का मतलब है - अस्तित्व बने रहना
द्रव्य अपना अस्तित्व हमेशा जैसा है वैसा ही बनाकर रखता है
सत् लक्षण सभी छह द्रव्यों में घटित होता है
सत् में ‘ता’ प्रत्यय जोड़ कर सत्ता शब्द बनता है
सत् का भाव ही सत्ता है
सत् कभी भी अपने भाव को नहीं छोड़ता
प्रत्येक द्रव्य के अन्दर हमेशा अपनी-अपनी सत्ता रहती है
सत्, सत्ता और द्रव्य का कभी नाश नहीं होता
जड़ हो या चेतन, सभी पदार्थ की सत्ता उसी रूप में रहती है
पंचास्तिकाय की गाथा 'सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा' के अनुसार
जो सत्ता है वह सर्व पदार्थ रूप है
और विश्वरूप है
सत्ता के बिना कोई भी पर्याय नहीं रहती
हमने जाना कि सत्ता अनन्त गुणों, अनन्त पर्यायों में होकर के विश्वरूप हो जाती है
पर्याय विनाशिक होती है
और द्रव्य हमेशा रहने वाला
द्रव्य में सत्ता का नाम अस्ति गुण है
चूँकि वस्तु विपरीत धर्मों के साथ रहती है
इसके साथ नास्ति गुण भी होता है
बिना नास्ति धर्म के अस्ति रूप भाव नहीं रहेगा
हमने जाना कि अस्तित्व को मानने वाला आस्तिक होता है
लेकिन लोग इसे अपने-अपने तरीके से परिभाषित करते हैं
पतंजलि योग और सांख्य दर्शन के अनुसार हिंदु दर्शन आस्तिक है
और जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शन नास्तिक हैं
मुनि श्री को ज्ञात हुआ कि Yoga Central Board के course में भी जैन दर्शन को नास्तिक कहा गया है
ये उनकी अपनी परिभाषाएँ हैं
पर सही नहीं है
वेदों को मानने वाले आस्तिक हैं
और न मानने वाले नास्तिक
ऐसा वर्षों से माना जा रहा है
परन्तु यह विभाजन का तरीका व्यापक नहीं है
भगवान को सभी एक रूप में माने ऐसा जरूरी नहीं है
यह अपनी-अपनी विचारधारा है
अगर हम वेदों को मानें
भगवान को ब्रह्मरूप मानें
सृष्टि का रचियता, संरक्षक मानें
पूरे विश्व में फैला मानें तो हम आस्तिक हैं
अन्यथा नास्तिक
ऐसा लिखने वाले इतिहासकार का ज्ञान अधूरा है
जैन दर्शन भगवान को सृष्टि के रचनाकार के रूप में नहीं स्वीकारता
यहाँ आदमी ही भगवान बनता है
वह एक ब्रह्म रूप नहीं होता
अनन्त ब्रह्म भगवद् सत्ता को प्राप्त हो जाते हैं
हमारे भगवान का रूप अलग है
अतः आस्तिक होना भगवान के मानने या न मानने पर depend नहीं होना चाहिए
आस्तिक शब्द अस्ति से बनता है
अस्ति के भाव को मानने वाला आस्तिक होता है
जब कोई व्यक्ति अस्ति को मान रहा है
कि जीव आदि द्रव्य हैं, संसार और मोक्ष हैं, बंध और मुक्ति हैं
तो उसे आस्तिक मानना चाहिये
इन परिभाषाओं को अब बदलना चाहिये
हम भगवान को एक रूप नहीं मानते
कण-कण में फैला नहीं मानते
लेकिन हर चेतन को भगवान के रूप में देखते हैं
इस दृष्टि से जैन दर्शन एक की अपेक्षा अनन्त गुणे भगवान मान रहा है
फिर तो हम अनन्त गुणे आस्तिक है
मुनि श्री ने कहा कि आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा व्यापक होनी चाहिए
संसार के अस्तित्व को स्वीकार करो
जरूरी नहीं अरहंत और सिद्धों को मानो
बस universe में living being और non living being की परिभाषा को मानो
यह एक व्यापक दृष्टिकोण है
जिसको सभी धर्म, सम्प्रदाय, देश और विदेश मान सकते हैं