श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 30
सूत्र - 34
सूत्र - 34
हर एक क्रिया से पुण्य का आस्रव कैसे कर सकते हैं? ‘जदं चरे।
अप्रत्यवेक्षिता-प्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि ॥7.34॥
25th, Jan 2024
Rukmani Jain
Sarsawa
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Promila Kumari Jain
Ludhiana
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Sulabh Jain
Delhi
WINNER-3
जदं का क्या अर्थ होता है?
आचरण
यत्न पूर्वक*
बिस्तर
जड़
हमने जाना कि बिना देखे, बिना परिमार्जन के
उत्सर्ग, आदान और संस्तरोपक्रमण करना प्रोषधोपवास व्रत में अतिचार होते हैं
परिमार्जन में हम किसी कोमल कपडे आदि से
जीव-जंतुओं को हटाकर ही वस्तु ग्रहण करते हैं या क्रिया करते हैं
मल त्याग आदि शरीर की क्रियायें उत्सर्ग में
और वस्तु का ग्रहण करना, उठाना, पहनना आदि आदान में आता है
हमें ये क्रियायें देखभाल कर, शोधन करके करनी चाहिए
प्रोषधोपवास से शरीर में शिथिलता आने के कारण से
इन क्रियाओं में प्रमाद आ जाता है
इसलिए इन्हें व्रत का दोष कहते हैं
ये सावधानियाँ केवल व्रतियों के लिए नहीं हैं
सामान्य गृहस्थ भी अपनी क्रियाओं को थोड़ा देखकर, शोधन करने से
पाप से बच जाते हैं
और पुण्य आस्रव करते हैं
पहले के लोग अक्सर कील आदि पर टँगे कपड़े थोड़ा हिला कर पहनते थे
आजकल ऐसी सावधानियाँ नहीं हैं और न ही कोई सिखाता है
दो दिन से पडी हुई shirt को तुरंत पहन लेते हैं
फिर चाहे उसमें छिपकली, cockroach या चींटियाँ बैठी हों
जब वे शरीर में काटेंगी या चिपकेंगी, तब हटाई जायेंगी
इसी प्रकार दिनों से बिछी हुए mat के नीचे अनेक जीव आ सकते हैं
आचार्यों ने कहा है जदं चरे
अर्थात यत्न पूर्वक, प्रयत्न के साथ चरो यानि हर क्रिया को करो
भोजन करना, वस्तु उठाना, वस्त्र पहनना आदि
यह प्रवृत्ति आने से जिन क्रियाओं से पाप का बंध हो रहा था
उन्हीं क्रियाओं से पुण्य आस्रव भी होता है
सिर्फ भीतर की थोड़ी सी सावधानी से पाप और पुण्य का balance बनने लगता है
जैसे सावधानी पूर्वक वस्त्र पहनने से पुण्य आस्रव
और जल्दी-जल्दी पहनने से पाप आस्रव
इसमें हमारा कोई घाटा नहीं है
पहले लोग सुबह संस्तर यानि बिस्तर आदि उठाकर रख देते थे
फिर शाम को देखकर, शोधकर बिछाते थे
इससे जीव हिंसा कम होती थी
उपवास की शिथिलता के कारण इसमें प्रमाद आ जाता है
कि कौन बिस्तर घरी करे, शोधन आदि करे
यह संस्तर का उपक्रमण दोष में आता है
आज तो बिस्तर चौबीसों घंटे पड़े ही रहते हैं
उठते ही नहीं है
प्रोषधोपवास और सामायिक के चौथे और पाँचवें अतिचार common हैं
अनादर अतिचार में प्रोषधोपवास की क्रिया के प्रति अनादर का भाव होता है
बहुमान का भाव नहीं होता
कि इससे हमारी कर्म निर्जरा होती है
स्मृति अनुपस्थापन में यह ध्यान ही नहीं रहता कि उपवास या प्रोषध करना है या नहीं?
या प्रोषध के बाद क्या क्रियाएँ करनी हैं?
स्वाध्याय, पूजन आदि करना है?
जैसे तैसे दूसरे काम करते हुए प्रोषधोपवास पूरा करने में ये सब एक दोष बन जाते हैं
हमने जाना कि जैसा उत्साह व्रत लेते समय होता है
वैसा ही routine में आने पर बना रहना चाहिए
व्रतों के प्रति आदर, स्मृति जुड़ने से विशुद्धि और कर्म निर्जरा बढ़ती है
उत्साह में कमी से हमें समझना चाहिए कि व्रत अब हमारी विशुद्धी नहीं बढ़ा रहे हैं
प्रमाद के कारण से एक बार ऐसी वृत्ति बन जाने से
यह धीरे-धीरे बढ़ती जाती
और फिर व्रत केवल ऊपर-ऊपर से रह जाते हैं
भीतर का भाव चला जाता है
इन क्रियाओं को हमेशा एक ढंग से करना सबसे कठिन होता है
व्रतों के माध्यम से routine तो बनता है
लेकिन भावों की विशुद्धि निरंतर बढ़ती जाती है
यदि इन क्रियाओं के पीछे विशुद्धि का भाव नहीं होगा तो ये routine लगेंगी
और जब इनसे भीतर शांति, उत्साह, विशुद्धि रहती है
तो यही क्रियाएँ routine नहीं लगेंगी
इनसे हमको बहुत ज्यादा लाभ मिलेगा
इसलिए गृहस्थ व्रत, प्रतिमा लेते समय ध्यान रखें कि
जैसे उत्साहित वे इन्हें ग्रहण करते समय होते हैं
वैसा ही उत्साह जीवन पर्यंत रहना चाहिए