श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 06
सूत्र - 03
सूत्र - 03
तप के माध्यम से विशेष रूप से निर्जरा। संवर का परिकर अपनाना ही तप है। जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के अनुसार तप करना। निर्जरा में विशेष तप का महत्व। दिगम्बर चर्या अपने आप में तप। विशिष्ट तप से विशिष्ट निर्जरा होती है। वास्तविक तपस्वी उल्टा चलता है। साधक की दृष्टि से सूत्र का गहन अर्थ। विशेष तप की साधना में सावधानी की आवश्यकता। मुनिश्री की भावना।
तपसा निर्जरा च॥9.3॥
08, oct 2024
Dimple jain
Bijwasan new Delhi
WINNER-1
Manisha Manojkumar
Bori
WINNER-2
Uma Jain
Delhi
WINNER-3
निम्न में से किसके माध्यम से विशेष निर्जरा होती है?
तप के द्वारा*
आस्रव के द्वारा
बंध के द्वारा
स्वैराचार के द्वारा
संवर और निर्जरा के प्रकरण में आज हमने सूत्र तीन “तपसा निर्जरा च” में
तप से विशेष रूप से होने वाली निर्जरा को जाना।
संवर का परिकर यानि
उसके आस-पास का वातावरण या चीजों का समूह
समिति, गुप्ति आदि से बना है
दिगम्बरी चर्या उसका अभिन्न अंग है
इनसे साधु का जीवन हमेशा तप में ही निकलता है।
उत्तर गुणों में आने वाली विशेष तपस्या भी तप है
और अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करना भी।
यानि जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताई गई दीक्षा या मार्ग
अपने आप में तपस्या है।
यह दीक्षा ‘स्वैराचार विरोधिनी’ होती है।
यानि इसमें अपनी इच्छा-अनुसार आचरण नहीं किया जाता।
जो भगवान की आज्ञा है,
जो पूर्व आचार्यों ने लिखा है,
उसके अनुसार आचरण होता है।
इससे बहुत सारी boundations आ जाती हैं
हमारी अपनी कोई इच्छा नहींं रहती
अपनी इच्छा को रोककर दूसरे के अनुसार चलने से,
इच्छा का संवरण होना तप है
हमने दिगम्बरी चर्या में तप का रूप जाना-
गर्मी, सर्दी, बरसात चाहे कुछ भी हो-
कभी भी, दिगम्बरत्व ढकने वाली किसी चीज़ का आलम्बन नहींं लेना,
केशलोंच करना,
बस एक बार
दूसरों द्वारा दिया भोजन करना,
जितना दिया उतना ही,
अपनी इच्छा से पानी भी नहीं पीना,
चलने में भी ऐसे ही इधर-उधर नहींं घूमना-फिरना
यह चर्या बहुत बड़ा तप है।
सूत्र में ‘च’ शब्द बताता है कि
तप से निर्जरा भी है और संवर भी
यानि मूलगुण, उत्तरगुण - दोनों तपों में संवर और निर्जरा दोनों हैं
बस आगे-आगे class बढ़ जाती है।
जब तक संहनन ज्यादा नहींं हो तब तक
दिगम्बरत्व का पालन करना होता है,
और संहनन बढ़ने पर उलटे चलना होता है
यानि
जब ठंड में सब घर में घुसकर बैठें
तब तपस्वी बाहर चौराहे पर, नदी तट पर बैठते हैं
और जब गर्मी में सब AC, cooler में बैठें तब
पर्वत के शिखर पर, धूप में बैठना
इससे निर्जरा बहुत अधिक होती है,
ऐसे तपते-तपते साधक शुक्ल ध्यान में पहुँच जाता है
और कर्म की निर्जरा करते-करते, केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
दस धर्मों में भी उत्तम तप आता है
यह सामान्य तप है
इसमें अनशन, ऊनोदर, वृत्ती परिसंख्यान, कायक्लेश, प्रायश्चित आदि करते-करते
इतना अभ्यस्त हो जाते हैं कि
सब सामान्य हो जाता है।
तब सहनशक्ति बढ़ने पर
उल्टा चलना शुरू होता है
लेकिन यह बिना सहनशक्ति बढ़ाये,
नहीं करना चाहिए
हमने जाना - भू शयन यानि जमीन पर शयन करना
पहले मिट्टी की,
गोबर से लिपि जमीन होती थी
पर आज के marble, granite ठण्ड में ठंडाते है और गर्मी में गर्माते हैं
इन पर सोने से फेफड़े तक खराब हो सकते हैं
इस तरह के भू-शयन से एक साधक की तबियत बिगड़ गयी
अब उनकी समाधि भी हो गयी
इसलिए हमें ऐसा नहीं करना चाहिए कि बीमार होकर
शक्ति खो दें
और मूलगुणों का पालन करने लायक भी न रहे
इसलिए आचार्यों के अनुसार भू-शयन में काष्ट फलक
यानि लकड़ी का पाटा,
तृणों के संस्तर
शिला आदि
का उपयोग कर सकते हैं।
उत्तर गुणों में आने वाले विशेष तप की भावना करते हुए मुनिश्री कहते हैं कि
हे प्रभु कब मैं, सो मुनि बनहूँ….
जो पर्वत, श्मशान, गुफाएँ, कोटर आदि
natural स्थान जिनका कोई मालिक नहींं
जिनको सफाई और सजाने की जरूरत नहीं, में रहें
इस भजन को आचार्य श्री जी को सुनाने पर उन्होंने कहा था
“ ब्रज भाषा में लिखा है”