श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 11
सूत्र - 11
सूत्र - 11
दुःखी जीवों के प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए ।विपरित बुद्धि वालों के प्रति माध्यस्थ भाव होना ही विशेष है ।चारों भावनाओं से मन को साफ करें ।
मैत्रीप्रमो-दकारुण्य माध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमाना-विनयेषु।।7.11।।
07th, Dec 2023
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दुखी जीवों के प्रति कौनसा भाव रखना चाहिए?
मैत्री
प्रमोद
कारुण्य *
माध्यस्थ
हमने जाना कि हमारे आसपास चार category के लोग होते हैं
और उन्हीं के लिए ये चार भावनाएँ बताई हैं
जो हमें कषाय से बचाती हैं
सामान्य लोग के प्रति मैत्री भाव
और गुणीजन के प्रति प्रमोद भाव
तीसरा कारुण्य भाव ‘क्लिश्यमान’ या दुःखी लोगों के प्रति
संसार में असाता वेदनीय कर्म के कारण से दुःखी, बीमारी से पीड़ित, दैहिक, आर्थिक, पारिवारिक समस्याओं आदि से पीड़ित लोगों के प्रति करुणा भाव रखना
उन्हें देखकर प्रसन्न नहीं होना
मन में दीनता का भाव नहीं लाना
बल्कि उन्हें देखकर दया का, करुणा का ऐसा भाव आना
जिससे हृदय द्रवित हो जाए
उनके दुःख को आत्मसात करने का भाव ही कारुण्य भाव है
दूसरे के दुःख को आत्मसात करने से
हम उसके दुःख से दुःखी नहीं होते
लेकिन हम अपने सुख में फूलते नहीं हैं
हमारा मन balance में रहता है
और अहं नहीं बढ़ता
चौथा ‘माध्यस्थ भाव’ अविनीत या अविनेय के प्रति है
जो किसी भी चीज को न तो समझना चाहते हैं,
न सीखना चाहते हैं
अविनेय लोग तत्त्व और धर्म को उल्टा ही लेकर चलते हैं
जो अच्छे काम में व्यवधान डालें, रोकें,
बिल्कुल opposite nature के हों, उनके प्रति हमें माध्यस्थ भाव रखना
यानि न उनसे attachment और न ही कोई hate
बिल्कुल neutral
बुरा सोचने या करने वाले के प्रति भी बुरा नहीं करना
दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवै
अर्थात दुर्जन, क्रूर, कुमार्ग पर चलने वालों को देखकर
मेरा मन क्षुब्ध न हो, disturb न हो
उनकी विपरीतता, पाप वृत्ति को देखकर हमें अपने मन को माध्यस्थ बनाना है
मैत्री भाव और माध्यस्थ भाव में अंतर समझते हुए हमने जाना
मैत्री भाव सब जीवों के प्रति है
यह एक common, सामान्य भाव है
लेकिन माध्यस्थ भाव एक विशेष भाव है
यह उन विशिष्ट व्यक्तियों पर आता है
जो हमारे बिल्कुल विरुद्ध हैं
सामने-सामने हमें नुकसान पहुँचाते है
मैत्री भाव उसके लिए भी है जिसपर हम माध्यस्थ भाव रख रहे हैं
यदि हमारा मन इन चार भावनाओं में लगता है
तो हमारा मन व्रतों में, धर्म ध्यान में लगा रहेगा
जैसे भोजन करने से पहले हाथ sanitize करते हैं
ऐसे ही सामायिक, ध्यान करने, चित्त को शांत और एकाग्र करने की क्रियाओं से पहले
इन चार भावनाओं से मन को sanitize करना चाहिए
थोड़ा सा धोना चाहिए
इससे चित्त environment की impurity या virus के effect से अलग हट जाएगा
हमें इन भावनाओं में ध्यान नहीं लगाना है, यह ध्यान के पहले की चीज है
मेरी भावना में भी
मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे …
आदि पंक्तियों में ये चार भावनायें आती हैं
हमें इन्हें मन से करना चाहिए
हमने जाना कि मन विचारों का पुंज है
इसमें विचारों की ही तरंगे आती हैं
इसलिए हमें इन भावनाओं की तरह अच्छे विचार ही करने चाहिए
लोग अपने मन से नहीं
बाहर की चीजों के बारे में सोच-सोच करके दुःखी होते हैं
मन तो एक परमाणु की तरह छोटा सा, पकड़ में न आने वाला point है
जिसमें इतना दुःख धारण करने की क्षमता ही नहीं है
हम उसके ऊपर दुःख बरसाते रहते हैं
जब हम मन को दुःखी न बना करके
इन भावनाओं में लगाते हैं
तो मन बड़ा सरल बन जाता है
मन में आनंद, समानता, दया, साक्षी भाव, माध्यस्थ भाव सभी मिल जाते हैं
इसी में मन की शांति मिलती है
ये जितनी अच्छी और सरल भावनायें हैं
उतनी ही करने में कठिन हैं
कषाय के उद्वेग में तो ये और भी कठिन हो जाती हैं
लेकिन अगर मन इनमें लग जाए
तो ये हिंसादि दोषों से भी बचाकर रखती हैं