श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 33
सूत्र - 36
सूत्र - 36
परव्यपदेश। मात्सर्य भाव का दोष। काल का अतिक्रमण। 12 व्रत कोर्स, सल्लेखना उनकी परीक्षा।
सचित्त-निक्षेपा-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमः।।7.36।।
31th, Jan 2024
Archana Jain
Indore
WINNER-1
रेखा उल्हास रोकडे जैन
अमरावती महाराष्ट्र
WINNER-2
Kàmini Jain
Shikohabad
WINNER-3
मुनिराज के आहार के दौरान फल के बाद पानी चलाना निम्न में से किस का उदाहरण है?
सचित्त अपिधान
परव्यपदेश
मात्सर्य
काल का अतिक्रमण*
अतिथि संविभाग व्रत के दूसरे दोष सचित्त अपिधान में
प्रासुक चीज को सचित्त फल, बर्तन आदि के माध्यम से ढ़क देते हैं
तीसरे परव्यपदेश दोष में हम अपने स्थान पर दूसरे व्यक्ति को आहार देने के लिए नियुक्त कर देते हैं
नियुक्त किया हुआ व्यक्ति कोई भी हो
नियुक्ति के कारण, उसमें आहार देने में उतना आदर भाव नहीं आएगा, जितना होना चाहिए
यह दाता का दोष है
अगर वह किसी कार्यवश बाहर है तो नियुक्ति से दान की प्रक्रिया तो हो जाती है
लेकिन चूँकि वह परव्यपदेश के माध्यम होती है
इसलिए अतिथि संविभाग व्रत का निर्दोष पालन नहीं होता
किन्ही-किन्ही घरों में घर के लोग side से खड़े रहते हैं
और दूसरों से दिलवाते रहते हैं
वे सोचते हैं कि कहीं उनसे कोई गलती न हो जाए
बस! आहार अच्छे से हो जाए
यह भी परव्यपदेश में आता है
दाता के माध्यम से ही दान की प्रक्रिया घटित होती है
मुख्य दाता घर का, द्रव्य का मालिक होता है
उसे ही मुख्य दाता बनकर आगे आना चाहिए
तभी वह दान सही कहलाएगा
पड़ोसियों, नौकरों से आहार कराने पर वह निर्दोष आहार नहीं होता
मात्सर्य दोष में एक दाता दूसरे दाता के प्रति मत्सरता या ईर्ष्या का भाव धारण कर लेता है
अगर किसी दाता को बार-बार पात्र का लाभ मिल जाता है
तो दूसरा दाता पात्र उससे मात्सर्य भाव करता है
वह पात्र पर तो गुस्सा नहीं कर पाता
हमें भावना करनी चाहिए कि अतिथि का आहार जहाँ भी हो निरंतराय हो
हमें लाभ नहीं मिला तो कोई बात नहीं
जिसे भी उस पात्र का लाभ मिले वो उसे निरन्तराय आहार कराये
इस तरह दूसरे दाता के प्रति प्रसन्नता लाने से अतिथि संविभाग व्रत निर्दोष पलता है
हमने जाना कि कई बार ज्यादा मात्सर्य भाव होने के कारण
अगर दाता पात्र का लाभ ले भी ले, तो अंतराय हो जाता है
अंतिम अतिचार काल का अतिक्रमण है
हमें समय पर मन को तैयार रखना चाहिए और दान देना चाहिए
ऐसा न करके, समय पर तैयार नहीं होना और बाद में प्रयास करना कालातिक्रम है
तथा सही समय पर सही वस्तु नहीं चलाना भी कालातिक्रम है
कौन सी वस्तु कब चलने योग्य है
किसके बाद क्या वस्तु चल सकती है आदि
जैसे फल के तुरंत बाद पानी का time नहीं है
इससे नियम से जुखाम हो जाएगा
या शुरुआत में ही सौंफ, लौंग चलाना
ये अंत में देने योग्य हैं
खाली पेट में एकदम से ठंडी वस्तु नहीं देनी चाहिए
इससे kidney पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है
इसलिए पहले कोई ठोस पदार्थ, द्रव देना चाहिए, जो थोड़ा सा आधार बने
आदि
पाँच अणुव्रत और सप्त शीलव्रत के अतिचारों के बाद
आचार्य उमास्वामी महाराज ने अन्तिम सल्लेखना व्रत को अलग से कहा है
कुछ आचार्यों ने इसे बारह व्रतों में परिगणित किया है
सल्लेखना सबके लिए व्रत नहीं है
यह व्रत की परीक्षा है
परीक्षा होने से व्रत में पूर्णता आती है
जैसे परीक्षा देकर उत्तीर्ण करने से पढ़ना सार्थक लगता है
वैसे ही आचार्य उमास्वामी महाराज कहते हैं कि सल्लेखना को हमें एक परीक्षा के रूप में अपने सामने रखना चाहिए
इसमें कठिनाई भी होती है, भाव भी बिगड़ते हैं
लेकन परीक्षा, इन बनने-बिगड़ने वाले भावों को ध्यान में रखकर, निर्दोष होनी चाहिए
सल्लेखना व्रत के अतिचार जानने से पहले
हमें बारह व्रतों के अतिचारों को अच्छे ढंग से सीखना चाहिए
क्योंकि जो व्यक्ति class में अच्छे ढंग से पढता है
वही exam में उत्तीर्ण होता है
इसलिए हमें बारह व्रतों के निर्दोष पालन में अपना मन लगाना ज़रूरी है