श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 10
सूत्र - 07,08,09
सूत्र - 07,08,09
सिद्ध भगवान का लोक के अग्र भाग पर रुकने का कारण धर्मास्तिकाय का अभाव है । उपादान को ही मुख्य मानकर चलने वालों का एकान्तवादी दृष्टिकोण । सिद्ध जीव का लोकाग्र पर रुकना भी निमित्त के आश्रित है । अनेकान्त दृष्टि अपनाएँ । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय उदासीन निमित्त हैं । सम्यग्ज्ञानी श्रुत का अवर्णवाद नहीं करते । पूर्वाचार्यों द्वारा मान्य धारणा । उदासीन और प्रेरक निमित्त । प्रेरक निमित्त से ही भावों में परिवर्तन सम्भव होता है । मुनिश्री का छहढाला पढ़ाने का भाव । सिद्ध भगवन्तों की विशेष जानकारी ।
आविद्ध-कुलाल-चक्रवद्-व्यपगत-लेपालाबु-वदेरण्डबीज-वदग्नि शिखावच्च॥10.7॥
धर्मा-स्तिकायाभावात्॥10.8॥
क्षेत्र-काल-गति-लिंङ्ग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध-बोधित-ज्ञाना-वगाहनान्तर-संख्याल्प-बहुत्वत: साध्या:॥10.9॥
08, May 2025
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सिद्ध भगवान का लोक के अग्र भाग पर रुकने का निम्न में से क्या कारण है?
सिद्ध भगवान की शक्ति की कमी
आकाश द्रव्य का अभाव
धर्मास्तिकाय का अभाव *
क्योंकि उसके आगे उनके ज्ञान के क्षय की संभावना होती है
मोक्ष के प्रकरण में हमने सूत्र छह और सात में
भगवान के ऊर्ध्वगमन के हेतु और उनके उदाहरण जाने थे।
आज हमने जाना कि जब वे अनन्त शक्तिमान हो गए हैं
और उनकी गति इतनी तीव्र है कि वे समय मात्र में सात राजू पार कर रहे हैं।
तो अब उन्हें कोई बाहरी कारण बाधक नहीं होना चाहिए।
तो उनकी तीव्र गति लोक के अग्र भाग पर जाकर क्यों रुक जाती है?
धर्मास्तिकायाभावात् सूत्र में हमने जाना ऐसा इसलिए होता है क्योंकि
उसके आगे गमन करने के लिए बाहरी निमित्त नहीं होता।
जो सिर्फ आत्मा की शक्ति ही देखते हैं,
उपादान शक्ति को ही मुख्य और निमित्तों को गौण मानते हैं
वे यह बात स्वीकार नहीं कर पाते कि उन अनन्त शक्तिमान आत्मा को कोई रोक सकता है।
वे कहते हैं कि उनकी उपादान शक्ति इतनी थी
कि वे सात राजू तक ही गमन कर सकते थे।
उनके अनुसार आत्मा अपनी शक्ति से ही सब करने में समर्थ है।
पर आचार्य कहते हैं कि उसके आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होता है।
आगे जाने के लिए कोई medium नहीं होता।
इसलिए निमित्त के आश्रित होने के कारण जीव को वहीं पर रुकना होता है।
अनन्त शक्तिमान होने के बाद भी सिद्ध भगवान निमित्त-आश्रित होते हैं।
वे भी धर्मास्तिकाय के अधीन हैं।
इससे उनकी शक्ति या अनुभूति कम नहीं हो जाती,
उनके गुणों में न्यूनता नहीं आ जाती।
धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण वे आगे नहीं बढ़ पाते
और अधर्मास्तिकाय उन्हें वहीं रोके रखता है।
अनन्त शक्तिमान सिद्ध भगवान भी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
क्योंकि उल्लंघन हुआ तो बिना माध्यम के, अलोकाकाश में भी जीवों का विचरण होने लगेगा।
जबकि वहाँ किसी का समावेश, या गमन नहीं होता।
हमें अनेकान्त दृष्टि से ऐसे ही समझना चाहिए-
जब निमित्त की व्याख्या आए तो निमित्त
और जब उपादान की व्याख्या आए तो उपादान पर जोर देना।
एकान्त से इसकी व्याख्या करने वाले श्रुत का अवर्णवाद करते हैं।
सिद्ध भगवान की उपादान शक्ति तो बहुत है।
अगर उन्हें आगे भी धर्मास्तिकाय का निमित्त मिलता रहता
तो वे चौदह राजू भी जा सकते थे।
train चलती तो अपनी शक्ति से है लेकिन
पटरी के बिना वह उस पर चल नहीं सकती।
आचार्य कुन्दकुन्द देव ने भी अष्टपाहुड़, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि अनेक ग्रन्थों में यह स्पष्ट लिखा है
कि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से ही वे आगे नहीं जाते हैं।
यह बात सभी आचार्य मानते हैं।
इसलिए उपादान मानने वालों को निमित्त को स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए।
यह उपदेश उन्हीं के लिए होते हैं जो अपनी बुद्धि सम्भाल पाएं।
हमने दो प्रकार के निमित्त जाने-
उदासीन निमित्त और प्रेरक निमित्त।
उदासीन निमित्त जबरदस्ती नहीं करता
जैसे प्रकाश या जिनेन्द्र देव की मूर्ति जबरदस्ती प्रेरित नहीं करते।
उनसे हमें खुद ही प्रेरणा लेनी पड़ेगी।
गुरु और उनके उपदेश, प्रेरक निमित्त होते हैं।
वे ही हमें पेरते हैं
यानि by force हमारे अन्दर भाव पैदा करते हैं,
हमें ज्ञान देते हैं।
अपने बल से प्रेरित करने से उनकी energy हमारे अन्दर जाती है,
जो हमारे अन्दर परिवर्तन लाती है।
अन्तिम सूत्र में हमने जाना
जैसे मुनि महाराज तो सभी होते हैं।
फिर भी हम विशेष जानकारी लेते हैं
कहाँ पर जन्म हुआ, क्या पढ़े हैं? आदि
ऐसे ही सभी सिद्ध होते तो समान हैं,
सिद्ध बनते ही सबकी परिणति एक जैसी हो जाती है,
सबका अनुभव समान होता है
पर उनमें मन लगाने के लिए कुछ पूर्व परिचय दिया जाता है
कि कहाँ पर कैसे सिद्ध होते हैं
और उन सिद्धों में किन अपेक्षाओं से क्या विशेषताएँ आती हैं।