श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 25
सूत्र -22,23
सूत्र -22,23
अशुभ नाम कर्म के हेतु। भावों में कुटिलता अशुभ नाम कर्म के बंध का कारण है। योगों की वक्रता अशुभ नाम के बंध का कारण है। पूर्व जन्म का पाप बंध अशुभ नाम कर्म का कारण होता है। विकृत शरीर संरचना भी अशुभ नाम कर्म के उदय से होती है। विसंवाद माने अन्य को मार्ग भटकाना अशुभ नाम कर्म के बंध का कारण है। सही रास्ते पर चलते को अन्यथा प्रवृत्ति कराना विसंवाद है। शुभ नाम कर्म के आस्रव के कारण। दूसरे के गुणों की प्रशंसा करने से शुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न:।।9.22।।
तद्विपरितं शुभस्य।।9.23।।
13th Sept, 2023
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दूसरे की प्रशंसा करने से कौनसे कर्म का आस्रव होता है?
शुभ गोत्र कर्म
अशुभ गोत्र कर्म
शुभ नाम कर्म*
अशुभ नाम कर्म
हमने समझा कि हमारा शरीर शुभ-अशुभ रूप
पिछले कर्मों के योगदान से होता है
सूत्र बाईस योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न: में
हमने अशुभ नामकर्म के बंध के कारण
योगों की वक्रता
और विसंवाद को जाना
वक्रता यानि कुटिलता
मन-वचन-काय का सरल नहीं होना
इनसे अलग-अलग प्रवृत्ति करना
दूसरों को हानि पहुँचा कर अपना उल्लू सीधा करना
नाप-तौल घटती बढ़ती करना
अधार्मिक तरीके से धन प्राप्त करना आदि
सभी योगों की वक्रता, मन की कुटिलता में आते हैं
खास तौर से धर्म, धर्म आयतनों, धर्म गुरुओं या शास्त्रों के माध्यम से
आजीविका चलाना भी कुटिलता है
और पाप का कारण है
जैसे इनमें दिए धन को हड़पना
या शास्त्रों का क्रय-विक्रय करना
जिन प्रतिमाएँओं, जिनायतनों को घात पहुँचाना
आपसी राग-द्वेष के कारण इनकी चिंता नहीं करना
वचनों से धार्मिकजन का हँसी-मजाक करना आदि भी इसमें आते हैं
हमने जाना कि अशुभ नामकर्म से ही शरीर की अशुभ रचना होती है
और इसका बहुत बड़ा कारण पूर्व में बंधे अशुभ नामकर्म होते हैं
जैसे अच्छे बच्चे का विकलांग होना
बुद्धि कम होना
या मुँह टेढ़ा-मेढ़ा होना आदि
पिछले जन्म के तीव्र कर्म के फल से व्यक्ति, जन्म से भी
या किसी दुर्घटना के बाद लंबे समय तक
विकलांगता, लकवा आदि बीमारीयाँ से ग्रसित हो सकता है
जिससे पूरा जीवन पराश्रित होकर निकलता है
कुछ लोगों को देख कर स्पष्ट समझ में आता है
कि इन्होंने पिछले जन्म में अच्छे कर्म किये थे
तभी मनुष्य जन्म, अच्छा जैन कुल मिला
लेकिन कभी शरीर का मद किया होगा
इसलिए चेहरे पर विकृतियाँ हैं
चाहे बचपन जैसी हंसी मजाक हो
या नीचा दिखाने वाली कुटिल वृत्तियाँ
जो हावभाव, शरीर के टेढ़े-मेढ़े expression
हम करते हैं
वैसे की कर्मों का बंध होता है
और आगे वैसा ही शरीर हमें ढोना पड़ता है
यह एक विज्ञान है
अशुभ नामकर्म का दूसरा कारण है विसंवादन
जहाँ योगों की वक्रता स्व के लिए होती है
विसंवादन में अन्यथा प्रवृत्ति होती है
जैसे किसी को सन्मार्ग से भटका कर मिथ्यामार्ग पर लगाना
इसमें मुख्यता है
दूसरे के साथ किए गए दुर्व्यवहार की
सही मार्ग से हटाने की
वाद-विवाद करके गलत को सही
या सही को गलत सिद्ध करने की
जैसे अंडा के शाकाहारी होने के
या वनस्पति के मांसाहार होने के कुतर्क देना
विसंवाद में लड़ाई-झगड़ा नहीं है
बस अपने कथन से दूसरे को अन्यथा प्रवृत्ति कराना है
व्यक्ति को धर्म कार्य से बिचकाना है
जैसे धर्म करने से, आलू छोड़ने से क्या होता है?
ऐसे कुतर्कों से उसमें अरुचि पैदा कराना
उसे picture hall आदि में घुमाने ले जाना
मन में अपने लिए और दूसरे के साथ
कुटिलता का व्यवहार ही अशुभ नामकर्म के आस्रव के दो प्रमुख कारण हैं
सूत्र तेईस तद्विपरितं शुभस्य में हमने जाना के इसके विपरीत
योगों की सरलता
किसी को अपनी प्रवृत्तियों से सन्मार्ग से नहीं हटाना
अपनी आत्मनिंदा और दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना आदि
से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है
शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि का भी यही लक्षण बताया जाता है
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा ग्रंथ के अनुसार 'अप्पाणं निंदन्तो'
अर्थात सम्यग्दृष्टी हमेशा अपनी निंदा करता है
जैसे हे भगवन! मैं तो ज्ञान लेकर भी पाप नहीं छोड़ पा रहा हूँ आदि
हमने जाना कि आत्मनिंदा करने से सरलता आती है
सरल व्यक्ति दूसरों के समक्ष भी अपनी गलती स्वीकार लेता है
लेकिन कठोर व्यक्ति आत्मनिंदा भी नहीं कर पाता
जिनके शुभ नामकर्म का आस्रव होता है
वे दूसरों के गुणों की प्रशंसा करते हैं
आत्मनिंदा करते हैं
अपनी प्रशंसा में रस नहीं लेते हैं
किसी को भी न विपरीत मार्ग पर नहीं चलाते
उन्हें सन्मार्ग पर लगाते हैं