श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 09
सूत्र - 06,07
सूत्र - 06,07
तीसरा कारण - बंध का विच्छेद होना । संग और बन्ध में अन्तर । शरीर का आत्मा के साथ संग और आत्मा का कर्मों के साथ बन्ध होता है । चौथा कारण - तथागति अर्थात् स्वाभाविक परिणाम ।
पूर्व-प्रयोगा-दसंङ्गत्वाद्-बन्धच्-छेदात्तथा-गति-परिणामाच्च॥10.6॥
आविद्ध-कुलाल-चक्रवद्-व्यपगत-लेपालाबु-वदेरण्डबीज-वदग्नि शिखावच्च॥10.7॥
02, May 2025
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पानी में डूबी हुई तुमड़ी के ऊपर से मिट्टी के हट जाने से उसका पानी के ऊपर आ जाना निम्न में से किसका उदाहरण है?
असंग *
बन्ध का विच्छेद
पूर्व प्रयोग
तथागति परिणाम
कर्मों के क्षय होने पर जीव ऊर्ध्व गमन करता है।
उसके कारणों में आज हमने जाना-
सभी कर्म बंधों के विच्छेद हो जाने से आत्मा का एक-एक प्रदेश मुक्त हो जाता है।
बन्ध ही किसी वस्तु को भारी बनाकर संसार में रोके रखता है।
भारी वस्तु ही नीचे जाती है,
हल्की वस्तु हमेशा ऊपर ही जाती है।
ऐसे ही बन्धों के छेद होने से वे संसार के ऊपरी किनारे पर आ जाते हैं
क्योंकि संसार के अन्दर डूबाने वाले कारण नहीं बचते।
ऊर्ध्व गमन के चार कारणों में सब होंगे तो भी कार्य हो जाएगा
और यदि एक-एक होंगे तो भी हो जाएगा।
संग और बन्ध अलग-अलग होते हैं।
जैसे एक कागज़ के ऊपर दूसरा कागज़ रख देना संग है
और उन्हें चिपका देना बन्ध।
बन्ध यानि एक के अभाव में दूसरे का अभाव हो जाना।
संग- साथ में समानान्तर चलने वाली, भावात्मक या द्रव्यात्मक चीजें होती हैं
और बन्ध आत्मा के अन्दर खुद को बान्ध देने वाली चीजें।
आत्मा और शरीर साथ-साथ चलते हैं।
शरीर आत्मा के संग है, उससे बन्धा हुआ नहीं है।
और कर्म आत्मा से बंधते हैं।
आत्मा में कर्म का बन्ध शरीर छूटने पर भी रहता है
अगले जन्म में भी रहता है।
लेकिन शरीर तभी तक रहेगा जब तक उसकी संगति साथ में है।
संग और बन्ध दोनों का छेद हो जाना चाहिए।
हम संग यानी शरीर का विच्छेद
और बन्ध यानी कर्मों का विच्छेद समझ सकते हैं।
दोनों के विच्छेद होने पर ऊपर जाता है।
ऊर्ध्व गमन का चौथा कारण तथागति परिणाम होता है
अर्थात् ऐसी ही गति करना उसका स्वभाव होता है।
यानी मुक्त जीव ऊर्ध्व गति में ही गमन करता है,
उसका अन्य कोई गमन करने का परिणाम होता ही नहीं।
परिणाम शब्द का अर्थ है -
उसमें इसी तरीके का परिणमन,
इसी तरीके का भाव आना।
सूत्र सात आविद्ध-कुलाल-चक्रवद्-व्यपगत-लेपालाबु-वदेरण्डबीज-वदग्नि शिखावच्च में हमने इन कारणों के क्रमशः उदाहरण समझे
आविद्ध-कुलाल-चक्रवत्,
व्यपगत-लेपालाबु-वत्,
एरण्डबीज-वत्, और
अग्नि शिखावत्।
आविद्धकुलालचक्रवत्, पूर्वप्रयोग का उदाहरण है।
कुलाल मतलब कुम्हार।
कुम्हार चक्र चलाकर, घड़ा बनाने के बाद घड़ा उठा कर नीचे रख दे
तो भी पूर्व प्रयोग से चक्र चलता रहता है।
असंगत्व का उदाहरण व्यपगत-लेपालाबू-वत् है।
अलाबू मतलब तुमड़ी,
लेप मतलब उसके ऊपर लेप,
और व्यपगत यानी रहित।
जब तक तुमड़ी के ऊपर मिट्टी आदि का लेप रहता है तो वह पानी में डूबी रहती है।
लेप हटने पर वह हल्की हो जाती है
और पानी के ऊपर आ जाती है,
तैरने लग जाती है।
तुमड़ी के मिट्टी के संग की तरह जीव के कभी औदारिक शरीर, तो कभी वैक्रियिक शरीर का संग रहता है।
इन शरीरों के अभाव हो जाने से वे संग से रहित हो जाते हैं
और संसार के ऊपर आ जाते हैं।
बन्ध के छेद के लिए एरंड के बीज का उदाहरण आता है।
एरण्ड के वृक्ष के फल में बीज होता है,
जब वह बीज पक जाता है तो वह अपने आप चटकता है।
और उसकी मिगी चटक कर एकदम ऊपर जाती है।
उसी तरह से बंध के मिट जाने पर आत्मा ऊपर की ओर जाता है।
तथागति परिणाम के लिए दीपक की शिखा का उदाहरण आता है।
दीपक की लौ का स्वभाव ऊर्ध्व गमन करने का होता है।
यदि हवा उसे इधर-उधर नहीं करे तो वह ऊपर ही जाती है।
इसी तरह से आत्मा ऊर्ध्व गमन करने के स्वभाव वाला होता है।