श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 52
सूत्र - 25
सूत्र - 25
पुण्य और पाप। नाम कर्म की शुभ प्रकृतियाँ। पाँचों शरीरों को शुभ क्यों कहा गया ? पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ।
सद्वेद्य-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्।।8.25।।
24,July 2024
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निम्न में से कौनसी आयु शुभ पर गति अशुभ मानी गई है?
मनुष्य
देव
तिर्यंच*
नरक
बन्ध तत्त्व के प्रकरण में आज हमने
नौ पदार्थ और कर्म-प्रकृतियों का रूप जानने के क्रम में
पुण्य और पाप प्रकृतियों को जाना।
सात तत्त्वों में
आस्रव और बन्ध का वर्णन साथ में होता है,
ये पुण्य और पाप दोनों रूप होते हैं।
सात तत्त्वों में पुण्य-पाप जोड़ कर नौ पदार्थ मिलते हैं।
सभी कर्म एक जैसे, सभी पाप रूप नहीं होते,
क्योंकि पाप तो दुखरूप ही होता है,
किन्तु कुछ पुण्य-कर्म सुखदायी भी होते हैं।
सूत्र पच्चीस सद्वेद्य-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम् में हमने -
बयालीस पुण्य कर्मप्रकृतियाँ जानी - 1
‘सद्वेद्य’ यानि साता वेदनीय की एक,
‘शुभायुर्’ अर्थात मनुष्य, देव और तिर्यंच शुभ आयु की तीन,
नामकर्म की सैंतीस ,
और उच्चगोत्र की एक।
पुण्य कर्म मोक्ष आदि पुरुषार्थ करने में सहायक होने से
हमारी आत्मा के लिए हितकारी होते हैं।
जैसे मनुष्य आयु और गति के बिना,
हम मोक्ष पुरुषार्थ नहीं कर सकते।
ये हमें शुभ, मंगलरूप, इष्ट और सुख देने वाले होते हैं।
असाता वेदनीय और नरक आयु पापरूप होती हैं।
आयु और गति एक साथ रहते हुए भी
तिर्यंच आयु शुभ, पर गति अशुभ है।
तिर्यंच गति पाप से मिलती है-
और इसमें पाप ही होते हैं,
लोक में यह अच्छी नहीं मानी जाती।
पर शरीर के बन्धन को बताने वाली आयु, तिर्यंच के लिए इष्ट होती है।
वह उसी पर्याय में सुख मानकर,
कष्ट से बचने के लिए मरना नहीं चाहता।
गोत्र में उच्चगोत्र शुभ होता है।
सूत्र ग्यारह के माध्यम से हमने नाम कर्म की सैंतीस पुण्य प्रकृतियाँ जानी-
चार गतियों में दो - मनुष्य और देव गति,
पाँच जातियों में एक - पंचेन्द्रिय जाति,
औदारिक आदि पाँचों शरीर,
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक तीनों शरीर-अंगोपांग,
पुरुषार्थ करने के लिए शरीर निर्माण हेतु निर्माण नामकर्म,
छह संस्थानों में पहला समचतुरस्त्र संस्थान,
छह संहननों में पहला वज्रवृषभनाराच संहनन,
अभेद-विवक्षा से एक-एक स्पर्श, रस, गंध, वर्ण,
चार गत्यानुपूर्वी में दो - शुभ गतियाँ के मनुष्य और देव-गत्यानुपूर्वी,
अगुरुलघु नामकर्म,
परघात नामकर्म,
चन्द्र और सूर्य विमानों में जन्मे एकेन्द्रिय जीवों के आतप और उद्योत नामकर्म,
उच्छवास नामकर्म,
दो विहायोगतियों में एक - प्रशस्त विहायोगति,
प्रत्येक शरीर,
त्रस,
सुभग,
सुस्वर,
शुभ,
बादर,
पर्याप्ति,
स्थिर,
आदेय,
यशःकीर्ति,
और तीर्थंकर नामकर्म
हमने जाना कि भेद-दृष्टि से आठ स्पर्श, पाँच रस, दो गन्ध और पाँच वर्ण शुभ-अशुभ दोनों हैं।
उपघात पाप प्रकृति है
चन्द्र और सूर्य विमानों में जन्मे एकेन्द्रिय जीवों की पर्याय और जाति तो अशुभ है,
लेकिन लोक में प्रकाश और दिन-रात का विभाजन करने के कारण आतप और उद्योत नामकर्म पुण्य है
बन्धन और संघात शरीरों में ही आ जाते हैं।
सभी पुरुषार्थों का कारण औदारिक शरीर शुभ है।
देवों का वैक्रियिक शरीर,
और आहारक शरीर शुभ है।
समुद्घात और अनिःसरणात्मक शरीर की अपेक्षा-
औदारिक और वैक्रियिक शरीर के साथ जुड़ने से ,
शरीर को कान्ति देने वाला तैजस शरीर शुभ है।
सामान्यतः शुभ-तैजस और अशुभ तैजस दोनों शरीर होते हैं।
आत्मा के उपकारी औदारिक शरीर को चलाने वाला,
पाँचों शरीरों का बीजभूत- कार्मण शरीर शुभ है
कुछ कर्म प्रकृतियाँ आत्मा के लिए शुभ, मंगल होती हैं
इस कारण कार्मण शरीर भी शुभ होता है।
इसके बिना हमें कर्मों का ज्ञान और क्षय का पुरुषार्थ नहीं हो सकता 4.16
हमने जाना
पुद्गल विपाकी प्रकृतियों का विपाक मुख्यतया शरीर में होता है।
इनमें शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान,संहनन आदि कर्म आते हैं जो
शरीर में कार्य कर,
उसकी रचना कर, अंगोपांग बना, बंधन और संघात कर
अपना direct फल शरीर को देते हैं।
जीव शरीर निर्माण के बाद इनका फल भोगता है,
direct स्वामी नहीं होता। 4.45
संहनन का अनुभव तो जीव करता है
लेकिन इसकी रचना शरीर में होती है और कर्मफल शरीर को मिलता है।