श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 25
सूत्र - 18
सूत्र - 18
परिहार विशुद्धि चारित्र के साथ conditions। सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र। यथाख्यात चारित्र । पंचम चारित्र अर्थात् यथाख्यात चारित्र की महत्ता।
सामायिकच्छेदोप-स्थापना-परिहार-विशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यात-मिति चारित्रम्॥9.18॥
13, nov 2024
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प्रतिक्रमण आदि पाठों में प्रतिदिन किस चारित्र के लाभ की प्राप्ति के लिए प्रार्थना या भावना करने में आती है?
सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र
यथाख्यात चारित्र*
परिहार विशुद्धि चारित्र
छेदोपस्थापना चारित्र
चारित्र के प्रकरण में हमने जाना
परिहार-विशुद्धि संयम आत्मा की ऋद्धि होती है,
जिसका उपयोग करने के लिए,
गमन करना आवश्यक होता है।
जीवों का परिहार करने की प्रवृत्ति से
यह विशुद्धि बढ़ाता है।
आत्मा की शक्तियाँ
अलग-अलग तरह के ज्ञान, तप आदि से प्रकट होती हैं।
इन ऋद्धियों का उपयोग करना होता है।
बिना उपयोग के-
सब ऋद्धियाँ एक ही हो जाएँगी
बस केवलज्ञान को ही ऋद्धि कहा जाएगा।
सामायिक, छेदोपस्थापना चारित्र वाले मुनिराज ही परिहारविशुद्धि रख सकते हैं।
उनके तीन चारित्र होते हैं।
विहार करते हुए उनका परिहार-विशुद्धि चारित्र होता है,
और सामायिक करते हुए सामायिक चारित्र।
ध्यान करते हुए सप्तम गुणस्थान से ऊपर उठ जाने पर
यह चारित्र छूट जाता है।
क्योंकि चलते हुए ध्यान नहीं होता।
अपनी quality से मिलीं extra चीज़ों का,
थोड़े समय तक उपयोग करके,
फिर उन्हें छोड़कर वापिस सामान्य में आकर
आगे बढ़ना होता है।
परिहार-विशुद्धि चारित्र--
मनःपर्यय ज्ञान के साथ,
प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन के साथ,
उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख होने पर,
और उपशम श्रेणी चढ़ने की दशा में
नहीं होता।
इस चारित्र वालों को-
आहारक ऋद्धि
तैजस समुद्घात और
विक्रिया ऋद्धि
भी नहीं होतीं।
यह तीर्थंकरों के पादमूल में ही
नौवें ‘प्रत्याख्यान पूर्व’ के अध्ययन से
जीवों का परिहार करने की कुशलता आने पर
पैदा होता है।
दसवें गुणस्थान में आत्मा का
अपने ही स्व-भाव में,
स्व-गुणों में रमण करना,
स्थित होना
सूक्ष्म-साम्पराय नामक चौथा चारित्र होता है।
यह विशिष्ट भाव केवल दसवें गुणस्थान में होता है,
इसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती।
क्योंकि उससे पहले बादर कषायों से
उपयोग में वह स्थिरता नहीं आती
जो यहाँ सूक्ष्म लोभ के साथ आती है
और आगे के गुणस्थानों में लोभ भी नहीं रहता।
पाँचवें यथाख्यात चारित्र में-
‘यथा’ अर्थात् जैसा भगवान ने चारित्र का स्वरूप
आख्यात अर्थात् कहा है
वैसा यहाँ अनुभूत होता है।
इसे ‘अथाख्यात’ भी कहते हैं
‘अथ’ अर्थात् अब,
भगवान ने इसे अलग से कहा है।
यह निर्विकल्प दशा,
राग और कषाय के पूर्णतया अभाव होने पर
प्रकट होती है।
ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में यह
छद्मस्थ वीतरागता रूप होता है,
जहाँ यह केवलज्ञान के निकट होता है।
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में
जिनेन्द्र भगवान का चारित्र भी यही होता है,
जहाँ यह मोक्ष के निकट होता है।
इस पञ्चम चारित्र से
मोक्ष और केवलज्ञान होने के कारण,
यही ध्येय होता है।
प्रतिक्रमण आदि पाठों में
इसे ही पाने की भावना करते हैं-
‘पंचम चारित्र लाभाय’।
यात्रा, सामायिक चारित्र से शुरू होकर
यथाख्यात चारित्र पर पूर्ण होती है।
हमने जाना-
सबका चारित्र एक सा नहीं होता,
विशुद्धि के आधार पर वह
जघन्य से उत्कृष्ट तक अनन्त भेदों रूप होता है।
जिसकी कषाय जितनी मंद होती है,
उसकी विशुद्धि उतनी अधिक होती है।
कषाय के अभाव में चारित्र में आने वाली यह विशुद्धि,
संयम की लब्धियाँ कहलाती हैं,
जो जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप होती हैं।
सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में, आचार्य पूज्यपाद महाराज
सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र की विशुद्धि एक साथ रखते हैं।
सबसे पहले सामायिक और छेदोपस्थापना का जघन्य संयम लब्धिस्थान
यानि इनकी जघन्य विशुद्धि आती है।
उससे अनन्त गुनी परिहार-विशुद्धि की जघन्य विशुद्धि
उससे अनन्त गुनी उसी की उत्कृष्ट विशुद्धि,
उससे अनन्त गुनी सामायिक और छेदोपस्थापना की उत्कृष्ट विशुद्धि,
उससे अनन्त गुनी सूक्ष्मसाम्पराय की जघन्य विशुद्धि,
उससे अनन्त गुनी उसी की उत्कृष्ट विशुद्धि,
और उससे अनन्त गुनी यथाख्यात चारित्र की विशुद्धि होती है।
यथाख्यात चारित्र की विशुद्धि के,
संयम लब्धी के,
भेद नहीं होते।
क्योंकि भेद कषाय के उदय की तीव्रता, मंदता, अनुभाग शक्तियों के कारण होते हैं।
और यथाख्यात में कषाय रहती ही नहीं
इसलिए यह निर्विकल्प, एक-विशुद्धि रूप होता है।