श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 08
सूत्र - 05
सूत्र - 05
पाँच प्रकार की समितियों का वर्णन। ईर्या समिति। भाषा समिति। मूलाचार ग्रन्थ की एक गाथा के माध्यम से मुनि श्री ने बहुत अच्छे से समझाया है। आज के परिप्रेक्ष्य में करने योग्य चेष्टाएँ। एषणा समिति।
ईर्या-भाषैषणा-दान-निक्षेपोत्सर्गा: समितयः॥9.05॥
10, oct 2024
Smt Rubee jain
Sagar m p
WINNER-1
स्वाति रविकिरण जैन
कुसुम्बा
WINNER-2
प्रेमलता जैन
जयपुर
WINNER-3
तीसरी समिति का क्या नाम है?
भाषा समिति
एषणा समिति*
आदान निक्षेपण समिति
उत्सर्ग समिति
संवर के प्रकरण में आज हमने
सूत्र पाँच - ईर्या-भाषैषणा-दान-निक्षेपोत्सर्गा: समितयः से समिति को जाना।
समिति अर्थात्
प्रमाद को छोड़कर,
जीवों की रक्षा करते हुए,
यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना।
गुप्ति में आत्मा की पापों से रक्षा पूर्णतया तो होती है,
लेकिन लम्बे समय तक इसमें रहना सम्भव नहीं होता
समिति से लम्बे समय तक प्रवृत्ति में आत्मरक्षा होती है
हमें जाना कि संवर मर्यादा में ही संभव है,
जिनेन्द्र वाणी के संविधान में रहने में
उसके अनुसार प्रवृत्ति करने और नहीं करने में
साधु की प्रवृत्ति की ये conditions पाँच समितियाँ होती हैं
ईर्या-समिति,
भाषा-समिति,
एषणा -समिति,
आदाननिक्षेप-समिति,
और उत्सर्ग-समिति।
ईर्या यानि गमन करना।
जीव-जन्तु से रहित, प्रासुक मार्ग,
पर प्रमाद रहित होकर,
चलने पर ही उपयोग लगा कर,
जीव हिंसा से बचते हुए,
चार हाथ भूमि आगे देखते हुए गमन करना
ईर्या समिति होती है
यह सूर्य के प्रकाश में ही की जाती है
रात्रि में गमन-आगमन इत्यादि नहीं किया जाता।
साधु की सारी प्रवृत्तियाँ
दिन में ही करने योग्य होती हैं
दूसरी भाषा समिति यानि
ऐसे वचन बोलना
जो कर्कश न हों,
जिनमें दूसरे की निन्दा न हो,
मिथ्या उपदेश न हो,
जो दूसरे को सन्देह में न डालें,
जो हितकारी हों,
मोक्षमार्ग की बातें बताएं,
जिससे लोगों को सम्यक् मार्ग पर चलने का भाव बने,
और अपनी आत्म रुचि उत्पन्न हो।
एषणा मतलब भोजन की इच्छा।
एषणा समिति में भोजन करते हुए समिति का ध्यान रखा जाता है।
इसके बारे में आचार्यों ने सबसे ज्यादा लिखा है।
साधु केवल अपने जीवन को चलाने
और अपनी आवश्यक क्रियाओं को निर्दोषपूर्वक
अप्रमत्त होकर करने के उद्देश्य से,
बिना किसी से याचना करे,
दिन में एक बार मौनपूर्वक भोजन करते हैं।
भोजन सुबह और शाम की 6-6 घड़ी
और दोपहर का कुछ मध्यान्ह काल छोड़ करके
किसी भी अन्तराल में कर सकते हैं।
भोजन 46 दोषों और 32 अन्तरायों से रहित होना चाहिए।
जिसमें कुछ दोष दाता के आश्रित,
और कुछ पात्र के आश्रित होते हैं।
पात्र आश्रित दोषों को तो वो control कर लेते हैं
पर जब दाता आश्रित दोषों का
पात्र को पता हो,
तब वह भी दोष हो जाता है,
इसलिए पात्र को निर्दोष आहार कराने के लिए
हम श्रावकों को इन दोषों का ज्ञान लेना चाहिए
संसार में हर जगह जीव हैं,
फिर इन जीवों की रक्षा कैसे हो?
प्रवृत्ति करते हुए पाप से कैसे बचें?
कधं चरे? यानी कैसे चले?
कधं चिट्ठे? कैसे चेष्टाएँ करें?
कधं आसे? कैसे बैठे?
कधं सये? कैसे शयन करें?
कधं भुंजेज्ज? कैसे भोजन करें?
कधं भासिज्ज? कैसे बोलें?
मूलाचार जी में इसका उत्तर एक ही शब्द में आता है।
‘जदं’ यानि यत्नपूर्वक सभी काम करें।
समितियाँ तो मुख्य रूप से साधु की होती हैं,
पर यत्नपूर्वक ये 6 प्रवृत्तियां हम भी कर सकते हैं।
हम सारी चेष्टाएँ awareness के साथ करें-
यत्नपूर्वक बोलें,
यत्नपूर्वक सोयें,
यत्नपूर्वक चलें,
यत्नपूर्वक खायें।
आज के परिप्रेक्ष्य में हमारी चेष्टाएँ कैसी हों
इन छह चीजों को elaborate करते हुए
पूज्य गुरुदेव ने अंग्रेजी में life management
और हिन्दी में खोजो मत पाओ
book लिखी है।
जो आज के समय में भगवान् के दिए सूत्र की उपयोगिता बताती है।
समितियों में प्रवृत्ति करना वरदान स्वरूप हैं।
सावधानी बरतने से हमारे हितों की रक्षा होती है।
कभी-कभी यत्न के अभाव में हम कहीं भिड़ जाते हैं,
यत्नपूर्वक चलने से हम ऐसी घटनाओं से बच सकेंगे।
थोड़ा सा भाषा समिति का ध्यान रखने से
बहुत सारी आपत्तियाँ, कलह, मनमुटाव,
दूर हो जाते हैं।
किसी के द्वारा प्रेरित किये जाते हुए भी
गलत नहीं बोलने से,
भाषा समिति होती हैl