श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 14
सूत्र - 08,09
सूत्र - 08,09
कर्म निर्जरा हेतु परीषह। परीषह जय। परीषह सहन अवश्य करें। परीषह के प्रकार। क्षुत् परीषह। क्षुधा परीषह सहन करने हेतु चिन्तन। साधु का अन्तराय।अन्तराय आने पर चिन्तन। पिपासा परीषह। शरीर व मन का सम्बन्ध। परीषह को जीतना ही है।
मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहा:॥9.08॥
क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंश-मशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या-क्रोध-वध-याचना-लाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कार-पुरस्कार - प्रज्ञाज्ञाना-दर्शनानि॥9.9॥
21, oct 2024
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क्षुत् का अर्थ क्या होता है?
तृप्ति
प्यास
क्षुधा*
मच्छर का दंश
सूत्र आठ - मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहा: में हमने परिषहों को जाना।
परिषह मतलब शारीरिक या मानसिक कष्ट।
उत्साहपूर्वक कर्म निर्जरा से
विशुद्धि होती है
और बिना विशुद्धि के परिषहों के नाम से ही डर लगता है।
प्रतिक्रमण पाठ में लिखा है कि
परिषह सहन करना ताकत का काम है,
कमजोरी का नहीं
‘परिषोढव्या:’ शब्द तव्य प्रत्ययान्त, कृदन्त शब्द है
जिसका अर्थ है- ‘सहन करना चाहिए’।
यानि यह विधेय है -
विधिरूप करने योग्य कार्य है।
सूत्र दो में परिषह जय शब्द
और यहाँ परिषह शब्द है।
परिषह यानि परिषह सहन करना
जिसमें परिषह का आभास रहता है।
धीरे-धीरे सहने में अभ्यस्त होने से-
उस परिषह से कोई भी पीड़ा, बाधा, डर नहीं उत्पन्न होना-
परिषह जय होता है।
परिषह सहन के बिना
चारित्र से, रत्नत्रय से स्खलन हो जाता है,
जिससे निर्जरा नहीं होती।
जैसे border से परास्त वापिस लौटने से,
स्वाभिमान नहीं रहता
या तो वहाँ जीता जाता है या मरा जाता है
ऐसे ही रत्नत्रय मार्ग से वापिस नहीं लौटा जाता
या तो हम परिषह जीतें
या फिर उन्हें साहस से सहन करें।
यहाँ बस ऐसा नहीं कहा कि
सभी शारीरिक और मानसिक कष्ट सहन करने योग्य हैं।
सूत्र नौ - क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंश-मशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या-क्रोध-वध-याचना-लाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कार-पुरस्कार-प्रज्ञाज्ञाना-दर्शनानि में उन बाईस परिषहों के नाम दिए गए हैं,
सारे subject लिखे हुए हैं,
ताकि हम बहाना न बना दें
प्रत्येक कष्ट को ध्यान रखकर, उसे सहने से
सहनशक्ति बढ़ेगी,
निर्जरा होगी,
और रत्नत्रय की विशुद्धि बढ़ेगी।
पहला क्षुत् यानि क्षुधा परिषह
अर्थात् भूख को जीतना।
साधु के आहार में बहुत boundations हैं,
मूलाचार में अनेक नियम हैं।
उन नियमों का पालन करते हुए ही आहार लेना है
अन्यथा वापिस आकर,
दिन भर उस वेदना को शान्त भाव से सहना होता है,
किसी पर चिल्ला कर, blame या taunt करके नहीं।
अन्तराय होने से
शरीर में पीड़ा, शिथिलता होती है।
आचार्य पूज्यपाद महाराज अपनी टीका में
इसे सहन कर,
अपने परिणामों को सँभालने के लिए, चिन्तन देते हैं कि
यह क्षुधा तो फिर भी सहनीय है
नरकों में हमने इससे कहीं अधिक क्षुधा सही है,
कितने तिर्यंच क्षुधा से मर जाते हैं
और कुछ निर्जरा भी नहीं करते,
हमें तो बोध मिला है।
इस प्रकार ज्ञानामृत पीते हुए,
साधु, शान्ति से
क्षुधा सहन कर लेते हैं
मुनि श्री ने रामटेक में
बीमारी की अवस्था में
तीन दिन के अन्तराय की वेदना में चिन्तन किया कि
उनका तो दो-तीन दिन का ही है,
अकाल के बारह वर्षों में लोग कैसे जिये होंगे!
मुनियों ने कैसे समता रखी होगी!
इस चिन्तन से उन्हें बल मिला
और वेदना शान्त हुई।
क्षुधा में आर्त ध्यान से बचने के लिए-
हमें mind divert करके
बड़ी-बड़ी पीड़ा और उपसर्ग सहन करने वाले
पूज्य पुरुषों का चिन्तन करना चाहिए।
दूसरा पिपासा यानि प्यास का परीषह-
अन्तराय, उपवास में ही नहीं
सामान्य दिनों में भी होता है।
हमें तो दिन भर खाते-पीते रहते हुए भी
प्यास लगती रहती है।
और साधु एक भुक्ति कर
गर्मी में, तपती भूमि पर, विहार करते हैं,
उपदेश देते हैं।
कण्ठ और होंठ सूखते हुए भी,
वे अपनी सामायिक में लगे रहते हैं।
मुनि श्री ने तीन दिन के अंतराय में
समता भाव से,
ज्ञान और स्वाध्याय में मन लगाकर,
इस परीषह को सहा।
इसमें शरीर शिथिल होने से
मन भी शिथिल पड़ता है।
ऐसे में हमें कर्म निर्जरा का मौका जानकर
साहस के साथ इसे जीतना चाहिए।
परिषह सहन करते हुए
प्रारम्भ में उस पर ध्यान तो जाता है
पर साधु यह भाव नहीं लाते कि
इसे दूर करने के लिए उन्हें कुछ मिल जाए।