श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 27
सूत्र -24
सूत्र -24
तृतीय भावना शीलव्रतेषुनिरतिचार – व्रतों और उनकी भावना में दोष न लगने देना। चतुर्थ भावना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग – ज्ञान में उपयोग लगाना। निरंतर उपयोग का ज्ञान और संवेग में लगना तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य आस्रव का कारण है। संसार से डरना माने भयभीत नहीं, संसार में अरुचि होना। पाँचवी भावना और षष्ठी भावना - शक्ति अनुसार त्याग एवं शक्ति अनुसार तप। जिस दान में सावद्य न हो - प्रासुक परित्याग महाव्रती द्वारा होता है।
दर्शन-विशुद्धि-र्विनयसम्पन्नता-शील-व्रतेष्वनती-चारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग-संवेगौ-शक्तितस्त्याग तपसी-साधुसमाधि-र्वैय्यावृत्त्यकरण-मर्हदाचार्य बहुश्रुत-प्रवचनभक्ति-रावश्यका-परि-हाणि-र्मार्ग-प्रभावना- प्रवचन-वत्सलत्व-मिति तीर्थकरत्वस्य।।9.24।।
15th Sept, 2023
Sejal Shah
Talod
WINNER-1
Dilip Shah.
Miraroad east
WINNER-2
Sushma Jain
Delhi
WINNER-3
अभीक्ष्ण का क्या अर्थ है?
निरंतर*
क्षणिक
बस अभी के क्षण में
कभी नहीं
हम तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति के आस्रव के सोलह भावों को जान रहे हैं
दर्शन विशुद्धि और विनय संपन्नता के बाद तीसरा कारण है शीलव्रतेषु अनतीचारः
अर्थात धारण किये हुए शील या व्रतों में दोष नहीं लगने देना
व्रतों का निरतिचार पालन सम्यग्दृष्टि ही करता है
ये व्रत और शील मोक्ष का कारण हैं
व्रतों की शुद्धि और ऐसी श्रद्धा से तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव करता है
शीलव्रत व्रतों की रक्षा के लिए होते हैं
जैसे पाँच अणुव्रत के लिए चार शिक्षाव्रत और तीन गुणव्रत होते हैं
मुनि महाराज के अट्ठाईस मूलगुणों के लिए बाईस परीषह, बारह तप शीलव्रत रूप हैं
इसका चौथा कारण है अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
अभीक्ष्ण का मतलब होता है निरंतर, बहुतायत
अर्थात निरंतर अपने उपयोग को ज्ञानमय बनाए रखना
शास्त्रज्ञान का चिंतन-मनन करना
उसके अनुरूप भाव और प्रवृत्ति करना
हमेशा चारों अनुयोग - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग में रुचि लेना
ज्ञानोपयोग की ऐसी शुद्धता
सम्यग्दर्शन के साथ
आत्मा के श्रद्धान से आती है
संसार आदि में अपना उपयोग न लगाकर
सम्यग्दृष्टि ज्ञानोपयोग की निबद्धता से यह पुण्यास्रव कर लेता है
हमने समझा कि ज्ञानोपयोग-संवेगौ में द्विवचन विभक्ति से
ज्ञानोपयोग और संवेग दोनों ही अभीक्ष्ण होते हैं
अभीक्ष्णसंवेग इसका पाँचवां कारण है
संवेग माने संसार से डरना
चौरासी लाख योनियों में घूमने से डरना
निरंतर यही डर बने रहना कि
संसार में कोई भी जन्म नहीं जहाँ सुख मिले
हमने पाप का भाव, संक्लेश मन में आते ही विचारना चाहिए
कि अगर कहीं तिर्यंच आदि गति को प्राप्त हो गए
तो फिर घूमते रह जाएंगे
सम्यग्दृष्टि के ही चार भाव - प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य आते हैं
वो संसार से डरेगा
इसलिए शरीर और भोगोपभोग सामिग्री से भी डरेगा
अभीक्ष्णसंवेग का मतलब अपने अंदर भय बिठाना नहीं है
अपितु आसक्ति पूर्वक प्रवृत्ति नहीं करना है
ठीक वैसे ही जैसे जो खीर हम पहले रुचिपूर्वक ले रहे थे
उसमें ज़हर होने की संभावना, पता चलने पर
हम उससे दूरी बना लेते हैं
इसके छटवाँ और सातवाँ कारण है शक्तितस्त्याग और शक्तितस्तप
द्विवचन विभक्ति के प्रयोग से
शक्तितः शब्द का उपयोग त्याग और तप दोनों के साथ है
शक्तितः त्याग - शक्ति के अनुसार त्याग है
दूसरों के काम आने वाले धन आदि का अपनी शक्ति के अनुसार त्याग करना
षटखण्डागम सूत्रों में तीन-चार भावनाओं में थोड़ा सा अंतर आता है
इसके लिए वहाँ प्रासुक परित्याग नाम आता है
इसकी ज्यादा जानकारी हम मुनि श्री रचित प्राकृत भाषा के तित्थ्यर भावणा ग्रन्थ से ले सकते हैं
प्रासुक दान मतलब बिल्कुल निर्दोष दान
जिसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र् की प्राप्ति हुई है
वही इन्हें दूसरे को देता है
यही प्रासुक दान है
यही सबसे बड़ा है
त्याग तो गृहस्थ भी कर सकता है
लेकिन प्रासुक परित्याग भावना केवल महाव्रती ही कर सकते हैं
प्रासुक परित्याग और शक्तितस्त्याग भावनाएं एक ही हैं
लेकिन उनका महत्व अलग है
हम तो मुनि महाराज को आहारदान प्रासुक करके देते हैं
लेकिन वे हमें pure ज्ञानदान देते हैं
चारित्र - अणुव्रत, महाव्रत आदि देते हैं
इस प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र् का दान महाव्रती ही करते हैं
सोलहकारण पर्व में हमें तित्थ्यर भावणा ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए
इसमें हर भावना के लिए प्राकृत की आठ गाथाएं
उनके मतलब
और पद्यानुवाद भी हैं
इससे हमें षटखण्डागम सूत्रों का भी परिचय हो जाएगा
व्रतों के दिनों में हमें एक-एक भावना पर मन लगाने के लिए
आठ पद्य में लम्बे विषय मिल जाते हैं
इन्हें प्रतिदिन पढ़कर और उसकी एक-एक जाप लगाकर,
हम अपनी भावनाओं को सशक्त बना सकते हैं
तप में कठिनता होती है
इच्छाओं की रोक होती है
अपनी शक्ति के अनुसार अंतरंग और बहिरंग तप करने से भी तीर्थंकर कर्म का आस्रव होता है
इसे शक्तित: तप कहते हैं