श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 08
सूत्र - 11
सूत्र - 11
महोरग जाति के इन्द्रों के नाम। गन्धर्व देवों का स्वरूप। विष्णुकुमार मुनि की विक्रिया का वर्णन। गन्धर्व जाति के इन्द्रों के नाम। यक्ष जाति के इन्द्रों के नाम। यक्ष जाति के देवों के कार्य। यक्ष देव क्या चाहते हैं? राक्षस जाति के देवों का स्वरूप। राक्षस जाति के देवों की विशेषता।राक्षस जाति के देवों के इन्द्रों के नाम। व्यन्तर देवों के निवास एवं क्रीड़ा स्थान। भूत-प्रेत की बाधा किन्हें होती हैं? भूत आदि की बाधा से बचने के लिए क्या सावधानी रखना चाहिए?
व्यन्तराः किन्नर-किंपुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः॥11॥
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भगवान की गंधकुटी की पहली कटनी पर किनको खड़ा किया जाता है?
किन्नर
गंधर्व
महोरग
यक्ष*
सूत्र ग्यारह से हम व्यंतर देवों के आठ भेदों को जान रहे हैं
पहले हमने किन्नर और किम्पुरुष जाति के देवों और उनके इन्द्रों के बारे में जाना
महोरग व्यन्तरों की तीसरी जाति है
इसका मतलब होता है- महा उरग, उरग यानि सर्प
इन्हें सर्प की विक्रिया करने की tendency होती है, एक कौतुक का भाव रहता है
जैसे नागों के भेष बनाना, कई हजार फणों वाले नाग का रूप बनाना आदि
अतिकाय और महाकाय इनके दो इन्द्र होते हैं
हमने देखा था कि नागकुमार भवनवासी देव में भी नाग की विशेषता होती है
इनके इन्द्र धरणानन्द और भूतानन्द होते हैं
इनके मुकुटों पर भी नाग आदि के चिन्ह लगे होते हैं
लेकिन महोराग व्यन्तर देव, अपने शौक में, विक्रिया से तरह तरह के सर्प के रूप रखते हैं
चौथे प्रकार के व्यंतर देव गन्धर्व जाति के होते हैं
गन्धर्व यानि नाचने और गाने बजाने वाले
ये भगवान के कल्याणक आदि में आगे-आगे नाचते तथा बीन आदि बजाते हैं
विष्णुकुमार मुनि के विक्रिया करने पर, गन्धर्व, किन्नर आदि देवों ने आकर
उनकी प्रशंसा कर एक हर्ष का वातावरण उत्पन्न किया
इनके दो इन्द्र हैं
गीत रति यानि गीतों में रति रखना
गीत यश यानि किसी की प्रशंसा करना
वैसे ही जैसे, घर में बच्चा होने पर किन्नर आते हैं और उस परिवार के यश का बखान करते हैं
यक्ष जाति के देव पांचवें प्रकार के व्यंतर देव होते हैं
इनके इंद्र हैं पूर्णभद्र और मणिभद्र
ये भगवान के आगे अच्छे प्रतीक चिन्ह लेकर चलते हैं
गन्धकुटी की सबसे पहली कटनी पर खडे होते हैं
मन्दिर या वेदी के परिकर में भी खम्भों पर खड़े होते हैं
जिनेन्द्र भगवान के साथ में ये शोभा को प्राप्त होते हैं
ये भगवान के निकट रहते हैं
क्योंकि उनके ऊपर चँवर भी यक्ष युगल ही ढ़ोरते हैं
मुनिश्री ने समझाया कि उनसे निकटता बनाने से हम भगवान के निकट नहीं पहुँच जायेंगे
हम तो direct भी भगवान के निकट पहुँच सकते हैं
राक्षस जाति के देव छठवें प्रकार के व्यंतर देव होते हैं
ये राक्षस की जो छवि सामान्य लोगों में समझी जाती है, उसके विपरीत होते हैं
हमें इनके बारे में नहीं सोचना चाहिए कि ये
माँस खाते हैं,
बुरे आकार वाले होते हैं
विकराल आकृति के होते हैं
बड़े-बड़े दाँत और जूट-जटाएँ रखते हैं,
ये सब इनकी विक्रियाओं के कारण से है, वास्तविक स्वरूप नहीं है
देव तो सभी मानसिक आहार, अमृत वाला आहार करते हैं
यदि हम कहें कि ये राक्षस जाति के देव हैं, जो माँस खाते हैं
तो यह इनका अवर्णवाद कहलाएगा
इनके इन्द्र हैं - भीम और महाभीम
हमने देखा व्यन्तरों के सभी भेदों से मनुष्य परिचित हैं हैं जैसे गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि
ये मनुष्यों के अति निकट रहते हैं
ये अपने भवन में नहीं रहते
बल्कि वृक्षों के तलों, मन्दिरों, सूने मकानों आदि में अपने आवास बनाकर के क्रीड़ाएँ करते हैं