श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 28
सूत्र -27
सूत्र -27
जैन दर्शन के अनुसार लोक विज्ञान में जीवों की सभी स्थितियों का वर्णन। अध्याय ३ में नारकी और मध्यलोक का वर्णन। तिर्यंचों का वर्णन अभी अधूरा है। सूत्रकार आचार्य के सूत्र लिखने की विशेष कला होती है। प्रश्नों का उत्तर सही प्रसंग पर दिया जाता है। तिर्यंचों के बारे में जान लिया फिर सूत्र २७ किस लिए है? सूत्र २७ का शाब्दिक अर्थ नया नहीं है। सूत्र ग्रंथों में लिखे सूत्र आपके तर्कों पर पूरी तरह खरे उतरते हैं।
औपपादिकमनुष्यभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः॥4.27॥
Chhaya Jain
Delhi
WINNER-1
आशा जैन
गाडरवारा
WINNER-2
Neelam Jain
kota rajasthan
WINNER-3
निम्न में से कौनसे जीव उपपाद जन्म वाले नहीं हैं?
औपपादिक जीव
तिर्यंच*
देव
नारकी
अध्याय तीन और चार में हम लोक की व्यवस्था को जान रहे हैं
कि लोक में कौन से जीव कहाँ रहते हैं
मुनि श्री के अनुसार ये अध्याय वस्तुतः लोक विज्ञान हैं
और हमें इनका अच्छे ढंग से श्रवण, चिंतन और मनन करना चाहिए
सूत्र सत्ताईस औपपादिकमनुष्यभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः इस श्रृंखला का अंतिम सूत्र है
देव और नारकी, उपपाद जन्म वाले, औपपादिक जीव होते हैं
तृतीय अध्याय में अधोलोक और मध्य लोक की व्यवस्था बताई गई
इसमें नरक गति के नारकियों का पूर्ण वर्णन मिलता है
हमने मध्य लोक में द्वीप समुद्रों का वर्णन पढ़ते समय तिर्यंचों और मनुष्यों के बारे में जाना
कर्मभूमि और भोगभूमि की व्यवस्था को समझा
हमने जाना कि कौन-कौन तिर्यंच मनुष्यों के साथ कहाँ-कहाँ रहते हैं
आर्याम्लेच्छाश्च में मनुष्यों का विज्ञान पढ़ा
सूत्र भरतैरावतयोर्वृद्धिह्नासौ से हमने इनकी आयु, ऊँचाई आदि की काल के प्रभाव से हो रही वृद्धि हानियों को भी जाना
सूत्र तिर्यग्योनिजानां च से हमने तिर्यंच योनि के जीवों की उत्कृष्ट आयु को जाना
चतुर्थ अध्याय में मध्य लोक के ऊपरिम भाग में स्थित ज्योतिषी देवों, मध्य लोक और अधोलोक में स्थित देवों और उर्ध्वलोक में वास करने वाले वैमानिक देवों को जाना
इस प्रकार तीन लोक में रहने वाले चार गतियों के जीवों का वर्णन, उनके स्थान, क्षेत्र, निवास या जन्म स्थान आदि को समझा कर भी आचार्य कहते हैं
कि तिर्यंचों के बारे में कुछ वर्णन रह गया है
अभी विशेष रूप से त्रस जीवों की चर्चा हुई है
विकलत्रय जीव ढाई द्वीप के अंदर ही रहते हैं
पंचेन्द्रिय की चर्चा भोगभूमि आदि के माध्यम से भी हुई है
मनुष्यों या द्वीप समुद्रों के साथ जुड़े तिर्यंचों के विज्ञान के बारे में भी हमने जाना
फिर भी कुछ तिर्यंच बच गए हैं
हमने जाना कि सूत्रकार आचार्य समय पर ही बताते हैं
अर्थात वे विषय को अप्रासंगिक रूप से प्रस्तुत नहीं करते
इससे विषय अच्छे से समझ आता है
इसलिए नये विद्यार्थियों को इस सूत्र को पढ़कर बड़ा अटपटा लग सकता है
कि आचार्य महाराज देवों के प्रकरण में तिर्यंच योनि का वर्णन ले आए
और सूत्र का शाब्दिक अर्थ भी कुछ गंभीर नहीं है
क्योंकि उपपाद जन्म वाले देव और नारकी दो गति के जीव हो गए,
मनुष्य तीसरी गति हो गई
इसके बाद जो शेष है वो चौथी गति यानि तिर्यंच गति ही होगी
यह बहुत ही सामान्य अर्थ है
हमने जाना कि सूत्र ग्रंथों में लिखे सूत्र तर्कों पर पूरी तरह खरे उतरते हैं
इसलिए हम अच्छे तरीके से अपने अपने तर्क वितर्क रख सकते हैं
आचार्य श्री ने यह विधा संघ में मुनिश्री को सिखाई है
जब वे खुद ही खूब कुरेद-कुरेद करके, तरीके की तर्कणा रखते हैं, प्रश्न करते हैं
तब शिष्यों के मन में भी आ जाता है कि जैन दर्शन में कोई भी चीज लचीली नहीं है
हमने समझाने के लिए मुनि श्री ने भी इसी तर्ज पर दो आरोप सूत्र पर लगाये
पहला तो यह अप्रासंगिक है
और दूसरा इसका कुछ गंभीर अर्थ भी नहीं है
इस सूत्र को तो तिर्यंच योनि मनुष्येभ्यो शेषा औपपादिका: भी लिख सकते थे
अर्थात तिर्यंच योनि और मनुष्यों के अलावा जो शेष बचे वह उपपाद जन्म वाले हैं
अगर हम किसी भी प्रकार की तर्कणा विनय भाव से आगम के परिप्रेक्ष्य में कर रहे हैं तो इसमें कोई दोष नहीं है