श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 16
सूत्र - 16,17
Description
‘जो अब्रह्म है, वह मैथुन का भाव है’ । अब्रह्म क्या है? अब्रह्म की व्यापक परिभाषा । अब्रह्म का कारण ।
Sutra
मैथुन-मब्रह्म॥7.16॥
मूर्च्छा परिग्रह: ॥7.17॥
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WINNERS Day 16
18th, Dec 2023
आभा जैन
मेरठ
WINNER-1
Shobha Prakash Vagyani
Sangli
WINNER-2
सूनंदा पाटील
सांगली
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
मिथुन का मतलब क्या होता है?
मिथ्या
मीठा बोलने वाला
जोड़ा *
बैल
Abhyas (Practice Paper):
Summary
हमने जाना कि आचार्य ने अहिंसादि व्रतों की परिभाषा न बताकर
हिंसादि पापों की आध्यात्मिक परिभाषा बताई हैं
क्योंकि हमें उन्हें छोड़ना है
पाप से विरति ही व्रत है
इससे आत्मा में पवित्रता अपने आप आ जाती है
सूत्र सोलह मैथुन-मब्रह्म के अनुसार मैथुन का भाव अब्रह्म है
अब्रह्म अर्थात ब्रह्म या अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव के विपरीत भाव
यह भाव चारित्र मोहनीय कर्म के तीव्र उदय में होता है
जब नोकषाएँ आत्मा के अंदर पर के साथ रमण करने की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न करती हैं
मिथुनस्य भाव: मैथुनं
मिथुन अर्थात जोड़ा
अर्थात् दो लोगों के बीच की यह प्रक्रिया अब्रह्म है
चाहे वो समलैंगिक - स्त्री-स्त्री, पुरुष-पुरुष या विषमलैंगिक स्त्री-पुरुष के बीच में हो
दोनों ही अब्रह्म हैं
दो के बीच में, चारित्र मोहनीय के उदय से,
अपने राग और रति भाव की पूर्ति के लिए,
स्पर्शनादि इंद्रिय के सुख के लिए
की गयी क्रिया अब्रह्म कहलाती है
जिसमें चारित्र मोहनीय कषाय का तीव्र उदय होता है,
उसमें यह भाव ज्यादा दिखता है
हमने जाना कि अकेले भी स्त्री, पुरुष आदि अब्रह्म का भाव करके
अपने ही शरीर से कुचेष्टाएँ कर सकते हैं
यह भी मैथुनमब्रह्म की व्यापक आध्यात्मिक परिभाषा में गर्भित हो जाता है
यहाँ भी आत्मा और मन में उत्पन्न राग भाव को दो चीजें मानकर
द्वित्व का भाव घटित हो जाता है
आत्मा राग के वशीभूत होकर
उस राग को शांत करने के लिए
अब्रह्म क्रिया में सुख लेता है
मुनि श्री ने समझाया कि इस प्रकार एक में ही दो चीजें घटित करना गलत नहीं है
जैसे ऊपरी भूत बाधा से पीड़ित आदमी का बोलना, चिल्लाना, उछलना आदि
उसमें समाये भूत के कारण से होता है
राग और वेद के परिणाम भी इसी प्रकार आत्मा से अनेक कुचेष्टाएँ करा देते हैं
यहाँ जो कारण रूप कर्म, नोकषाय हैं,
साधन रूप नोकर्म हैं
और शरीर जिसमें चेष्टा करके वह सुख पा रहा है
सब आत्मा से अलग हैं
ये सब चीजें अब्रह्म में गर्भित हो जाती हैं
आचार्यों ने इसे चौदह अभ्यंतर परिग्रह में वेयराया यानि वेद का राग बताया है
यानि वेद संबंधी राग परिग्रह है
इसके कारण स्त्री-पुरुष में, पुरुष-स्त्री में, स्त्री-स्त्री में, पुरुष-पुरुष में या नपुंसक भाव के कारण स्त्री, पुरुष दोनों में राग होता है
वेद राग की धारणा को नहीं छोड़ पाना
प्रमत्त योगात् हिंसा की तरह अंतरंग परिग्रह है
हिंसा आदि की तरह अब्रह्म भी प्रमत्त योग से ही होता है
जिसके अंदर सावधानी होगी, वह इसमें नहीं पड़ेगा
हिंसा की तरह अब्रह्म में भी आदमी मतवाला हो जाता है
उसको कुछ भी समझ नहीं आता
मुनि श्री ने समझाया कि अब्रह्म में भी भाव के प्रधानता है
किसी के शरीर से लग जाना, उसको गोद में लेना आदि
जब तीव्र राग और वेद नोकषाय का उदय एक साथ होता है
तो मैथुन का भाव होता है
मगर जब सामान्य मोह भाव के कारण से होता है
तो केवल मोह होता है
जैसे पिता का बेटे-बेटी को गले लगाना
हमने जाना ब्रह्म से स्व-भाव हटना अब्रह्म है
यह भाव भी पाप भाव है
अपने ब्रह्म के निकट आने के लिए हमें इसे छोड़ना होगा
सूत्र सत्रह मूर्च्छा परिग्रह: के अनुसार मूर्च्छा या मोह का भाव ही
पाँचवाँ पाप परिग्रह है
लौकिक भाषा में मूर्च्छा का मतलब मूर्छित होना, सुध-बुध खोना होता है
मूर्च्छा शब्द मोह से बनता है
अतः मोह के कारण से जब किसी चीज में इतना indulge हो जाएँ
कि कुछ और समझ न आए तो वह चीज मूर्च्छा बन जाती है
परि मतलब चारों ओर से
ग्रह मतलब ग्रहण करना
अतः परिग्रह हमको चारों ओर से ग्रहण कर लेता है
गिरफ्त में ले लेता है