श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 02
सूत्र - 01,02
सूत्र - 01,02
अशुभ क्रियों को शुभ बनाओ। व्रत मोक्ष मार्ग के लिए admission है। पुण्य और पाप की निर्जरा कभी एक साथ नहीं होती। संवर किसका करना ? समिति।
हिंसा:Sनृतस्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।।7. 1।।
देशसर्वतोऽणुमहती।।7.2।।
3rd, Nov 2023
Soumya Jain
Burhar
WINNER-1
Sunita Jain
Delhi
WINNER-2
Manju Jain
Dehradun
WINNER-3
देश का क्या मतलब है?
रहने की जगह
थोड़ा*
पूरा
महाव्रत
हमने जाना कि अशुभ का बंध हमारे लिए अच्छा नहीं है
हमें पहले अशुभ को शुभ बनाना होगा
अन्दर की inauspicious activity को auspicious activity बनाना होगा
इस process में पहले अशुभ से हटो
अशुभ आस्रव को रोको
सांसारिक अनुबंधों को कम करो या समाप्त करो
फिर शुभ का अनुबंध करो
सात तत्त्वों में संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व भी है
इस अध्याय में संवर
आठवें अध्याय में बंध की व्यवस्था
नौवें में निर्जरा
और दसवें में मोक्ष का वर्णन है
हमें thought process change करनी होगी, ऐसा नहीं कि
हमें तो सीधे मोक्ष चाहिए
शुभ बंध भी तो बंध है
क्योंकि बंध का नाम संसार है
इससे भी तो संसार ही होगा
लेकिन ऐसा कोई process नहीं है
हम मोक्ष की भावना या श्रद्धान तो कर सकते हैं
लेकिन उसकी प्रक्रिया इसी सूत्र से आरम्भ होती है
जैसे हम घर बैठे आगे की कक्षा की book पढ़के intelligent तो हो सकते हैं
लेकिन उस कक्षा के student नहीं बन जाते
बिना admission और exam के हमारी intelligence भी certified नहीं होती
उसी प्रकार बिना व्रत ग्रहण किये, बिना शुभ की प्रक्रिया प्रारम्भ किये
मोक्ष की प्रक्रिया शुरू नहीं होती
तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार अशुभ और शुभ, दो ही चीजें हैं
दो ही आस्रव हैं
शुद्ध कुछ नहीं है
हमने जाना कि पुण्य और पाप की निर्जरा कभी एक साथ नहीं होती
अशुभ आस्रव का रुकना ही संवर है
इसके बाद ही निर्जरा होगी
और इसके बाद ही हम मोक्ष पथ के अनुगामी कहलाएँगे
मोक्ष के process पर चलने से ही काम होगा
time लग सकता है
पहले पाप का संवर और निर्जरा होगी
फिर बंध से मुक्ति मिलेगी
इसी से मोक्ष मिलेगा
हमने माना कि आस्रव संसार का कारण है
और संवर मुक्ति का
अतः मुक्ति का कारण संवर से ही हो करके जाता है
संवर भी पाप और पुण्य का एक साथ नहीं होता
पहले हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का संवर करना होगा
इनके प्रति अपनी desires control करनी होंगी
इनकी limit बनानी होगी
इससे पाप का बंध रुकेगा
फिर हम उसकी निर्जरा भी कर पाएंगे
यही संवर फिर पूर्ण संवर के लिए भी कारण बनेगा
संवर प्रवृत्ति रूप और निवृत्ति रूप होता है
प्रवृत्ति मतलब एक चीज को छोड़ कर, दूसरा शुरू करना
यहाँ करने का नाम ही प्रवृत्ति है
निवृत्ति का मतलब है- कुछ भी नहीं करना
यह नौवें अध्याय में आएगा
पहले प्रवृत्ति रूप संवर करने से ही आगे निवृत्ति रूप संवर होता है
हमने जाना कि पहले व्रत होते हैं
फिर समिति और फिर गुप्ति होती है
व्रत होंगे तो ही समिति होगी तो ही गुप्ति होगी
व्रतों में समय के अनुसार प्रवृत्ति करने का नाम समिति है
इसमें हम हिंसादि के प्रति awareness के साथ activity करते हैं
यह विरति के बाद ही संभव है
इसमें प्रवृत्यात्मक संवर होता है
गुप्ति में निवृत्तयात्मक संवर होता है
जिसका वर्णन नौवें अध्याय में आएगा, पर उसकी तैयारी यहीं से शुरू होती है
सूत्र दो देशसर्वतोऽणुमहती के अनुसार विरतियाँ दो प्रकार की होती हैं
‘देश’ मतलब थोड़ा, अणु रूप में विरति - अणुव्रत होते हैं
‘सर्वत्तः’ मतलब सब ओर से; सभी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव; हर स्थिति में विरति - ‘महती’ अर्थात महाव्रत होते हैं
हिंसा, कुशील, झूठ, चोरी, परिग्रह का थोड़ा-थोड़ा त्याग देशव्रत या अणुव्रत हो गये
यही संयतासंयत हो गया
इनका मन, वचन, काय, कृत-कारित, अनुमोदना से; जीव अधिकरण में बताए 108 प्रकार के आस्रव द्वार से पूर्ण त्याग महाव्रत होते हैं