श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 20
सूत्र -14,15
सूत्र -14,15
जुगुप्सा कषाय। पुरुष को स्त्रीवेद मिलने के कारण। स्त्री को स्त्रीवेद मिलने के कारण। पुरुष वेद मिलने के कारण। नपुंसक वेद मिलने के कारण। चारित्र मोहनीय कर्म उदय के कारण को समझे। कषायों की तीव्रता ही चारित्र लेने में बाधक। चारित्रवंतों के प्रति अपना आदर सम्मान रखना चाहिए। छठवाँ अध्याय चित्त की वृत्तियों को समझने का दर्पण है। नरक आयु बंध का कारण।
कषायो-दयात्तीव्र-परिणामश्चारित्र-मोहस्य।।1.14।।
बाह्यारंभ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:।।1.15।।
4th Sept 2023
Dileep Kumar Sethi
Jabalpur MP
WINNER-1
सौ.अलका अजितकुमार जैन
पारोला
WINNER-2
Manju Jain
Alwar
WINNER-3
जुगुप्सा का मतलब क्या होता है?
घृणा करना
ईर्ष्या करना
ग्लानि करना*
क्रोध करना
हमने जाना कि स्वयं भयभीत होना
और दूसरों को भयभीत करना
दोनों ही भय नोकषाय के आस्रव का कारण है
जैसे डरावनी फिल्में देखना और दिखाना आदि
जो ऐसे भय उत्पन्न करते हैं
उनको भयभीत होने के निमित्त मिलेंगे
और जो नहीं करेंगे, वे निडर होंगे
जुगुप्सा अर्थात ग्लानि करना
विशेष रूप से व्रती, तपस्वी, सदाचारी के प्रति
इससे जुगुप्सा नोकषाय वेदनीय कर्म का आस्रव होता है
हमने जाना कि जैन कर्म सिद्धांत के अनुसार,
हमें वैसे ही कर्म बंधेंगे, जैसा हमारे अंदर attraction होगा
और हमें वही चीजें मिलेंगी
इसी कारण स्त्रीवेद नोकषाय का आस्रव कोई भी कर सकता है
स्त्री में ज्यादा लंपटता रखने वाले,
उनके रंग-रूप, नृत्य, फिल्म इत्यादि देखने में हमेशा आनंदित रहने वाले
पुरुष भी
और अपने स्त्रीपने में आसक्त,
अपनी पर्याय को अच्छा मानने वाली
अपने सौंदर्य को बनाए रखकर उससे दूसरों को आकर्षित करने वाली
स्त्रियाँ भी
आजकल की modern lady भी इसी आसक्ति के कारण स्त्रियाँ बनती हैं
सिद्धान्त के अनुसार प्रशस्त चीजें परिणामों में शुभता से मिलती हैं
और पुरुष वेद स्त्री वेद से प्रशस्त होता है
जो अच्छी चीजें पहन कर, शारीरिक आकर्षण से
लोगों को लुभाने के परिणामों के प्रति उदासीन होता है
सीधा simple रहता है
स्त्रियों से प्रयोजन न रख केवल अपनी स्त्री से संतुष्ट होता है
ऐसे मंद कषायी को पुरुष वेद का आस्रव होता है
नपुंसक वेद की तृप्ति न पुरुष से और न स्त्री से होती है
इसका आस्रव तीव्र कामासक्ति और अत्यंत क्लेश भाव से होता है
जैसे बलात्कार करना, कामातुर रहना, गंदी प्रवृत्तियोंयाँ करना, पुरुष होकर पुरुष में आसक्त होना आदि
इस वेद के उदय के कारण व्यक्ति चारित्र ग्रहण नहीं कर पाता
विद्वान, स्वाध्यायी लोग जब रात्रि भोजन आदि का त्याग नहीं कर पाते
तो वे “चारित्र मोहनीय के उदय” को अपना सुरक्षा कवच बना लेते हैं
वे ये नहीं कहते कि हमारे अंदर कषायों की तीव्रता है
हमने जाना कि मंद कषाय में चारित्र के प्रति झुकाव होता है
और तीव्र कषाय में विनीतपने का भाव नहीं रहता
इसलिए चारित्र के लिए हमें पहले चारित्रवानों की तरफ झुकना पड़ेगा
गुणी का आदर करने से गुणों की प्राप्ति होती है
और अनादर करने से नहीं होगीती
ज्ञानार्णव जी ग्रंथ में भी वृद्ध सेवा का अध्याय है
इसमें मुनि महाराजों को
ज्ञान, संयम, सम्यग्दर्शन, तप आदि में जो उनसे बढ़कर हैं
उनकी सेवा करने को कहा है
आचार्य श्री कहते हैं छठा अध्याय छटा हुआ है
यह अपने मन, चित्त की वृत्तियों को समझने का एक दर्पण है
इसके सूत्रों के ज्ञान से हम अपने आप को संभाल सकते हैं
अपनी कमियाँ देख सकते हैं
हमें इसे बार-बार सुनना चाहिए
क्योंकि किसी चीज का निरंतर श्रवण करने से
हमारे अंदर वैसे ही विचार आने लगते हैं
हमें अपने कमियों पर पर्दा न डालकर, उनके ऊपर विजय प्राप्त करनी है
सूत्र पन्द्रह बाह्वारंभ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष: में हमने जाना कि
‘बहु आरंभ और बहु परिग्रह’ के परिणाम
नरक आयु या नारकी बनने के कारण हैं
बहु आरंभ में जीवों का ज्यादा घात करने वाले सभी activities, व्यापार आदि आते हैं
जीव वध को ही आरंभ कहते हैं
लेकिन जीवों के प्रति द्वेष या पैसा आदि से अत्यधिक लोभ होने के कारण
हम उससे विरति नहीं ले पाते
हमें दया का भाव नहीं आता
परिग्रह का अर्थ है पर वस्तु को आत्मीय कर लेना अर्थात् पर वस्तु में मेरेपन का भाव होना
मम इति परिग्रह
जीवन के लिए आवश्यक चीजों के लिए कोई बात नहीं
लेकिन जब भाव extreme में पहुँच जाए
तो वह बहु परिग्रह हो गया
जैसे जयललिता के पास साड़ियों और जूते-चप्पलों का अम्बार लगा था
बहुत आरंभ और परिग्रह से हमारी लेश्या बिगड़ जाती है