श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 05
सूत्र - 03,04,05
Description
नारकियों को भूख-प्यास की तीव्र वेदना होती है। नारकियों को खाने के लिए तीखी, जहरीली मिट्टी ही मिलती है। नरक में पीव, रक्त आदि दुर्गन्ध युक्त पदार्थों नदी बहती है। नरक में वृक्ष के पत्ते तलवार के समान कटीले होते हैं । मनुष्य गति में दुःख न के बराबर है । नरकों के दुःख का चिन्तन करने से घर के अगर नारकीय वातावरण उत्पन्न हो रहा है, उससे बच सकते हो । पराधीनता नारकी-जीवन के समान है । कर्मों के फल में स्ववश का भाव लाओ । परस्पर में एक-दूसरे के दुःख को बढ़ाने की चेष्टा करना, नारकीय-भाव है । "परस्परोदीरितदुःखाः" से "परस्परोपग्रहोजीवानाम्"। देवों के द्वारा भी नारकियों को दुःख दिए जाते हैं । पशु-पक्षियों को लड़ाई वाले खेलों को देखना, आयोजन करना संक्लिष्ट कर्म हैं; पाप बन्ध का कारण है।
देव गति में भी पूर्व में किए गए पाप कर्मों का उदय चलता रहता है। रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग में नाग कुमार आदि नौ प्रकार के भवनवासी देव और किन्नर-किंपुरुष आदि सात प्रकार के व्यन्तर देवों के निवास-स्थान हैं। भवनवासी देवों के निवासस्थान सात करोड़ बहत्तर लाख और व्यन्तर देवों के असंख्यात निवासस्थान होते हैं।
Sutra
नारका नित्याशुभतरलेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रिया:ll३ll
नारकी जीव परस्पर में एक-दूसरे के दुःख को उकसाते हैं परस्परोदीरित दुःखाः॥4॥
संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः।l५।l
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WINNERS
Day 05
29th Sept, 2022
Amita
Burhar
WIINNER- 1
Vijaishree jain
Lucknow
WINNER-2
Monica jain
Ludhiana
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' के ऊपर मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर जी महाराज ने जो टीका लिखी है उसका नाम क्या है?
नीतिवाक्य
नीतिपथ*
नीतिप्रश्न
नीतिप्रश्नोत्तर
Abhyas (Practice Paper):
Summary
सूत्र 4 "परस्परोदीरितदुःखाः" में हमने जाना कि नारकी परस्पर में एक-दूसरे को दुःख देते हैं
नारकी एक दूसरे के दुखों की उदीरणा करते रहते हैं, उन्हें बुरी बातें याद दिला कर उकसाते हैं
मनुष्यों में भी एक दूसरे के दुःख की उदीरणा करना नारकीय भाव है
अपने मिथ्या-अवधिज्ञान ज्ञान के कारण, वे पुरानी बातों को उल्टा मानते हैं, बताते हैं
जैसे अगर कभी माँ ने बेटे की आँख में काजल लगाया था तो वे अब उसकी उल्टी व्याख्या करते हैं और मानते हैं कि माँ ने उसकी आँखों में उँगली डाल कर परेशान किया था
इनका Nature Totally Negative ही होता है
नारकियों को असाता के उदय से भूख-प्यास की तीव्र वेदना होती है
इन्हें इतनी भूख लगती है कि तीनों लोकों का अनाज खा जाएँ तो भूख नहीं मिटे, पर मिलता एक कण भी नहीं है
इन्हें खाने के लिए तीखी, जहरीली मिट्टी ही मिलती है
जिसे अगर मुँह में रख लेते हैं तो जल जाते हैं, बार-बार पीड़ा को प्राप्त करते हैं
लेकिन फिर भी मर नहीं पाते हैं
नारकियों की प्यास की तड़पन ऐसी होती है जैसे वे जलती भट्टी में हों और एक बूँद भी जल न मिले
जल के नाम पर वहाँ पीव, रक्त आदि शरीर के दुर्गन्धित पदार्थों की वैतरणी नदी बहती है
इस नदी में जाकर के उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं
नारकियों को क्षण भर के लिए शान्ति और सुख नहीं होता है
अगर वे शान्ति से किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाएँ तो उसके पत्ते ही तलवारें बन करके उनके ऊपर गिर कर शरीर फाड़ डालते हैं
हमने जाना कि नरक में एक तो अपने दुःख हैं ही और एक दुःख सामने वाला दे रहा है
नरक की तुलना में मनुष्य गति में दुःख, न के बराबर हैं
यदि किसी दुःख के अवसर पर हम थोड़ा-सा मौन धारण करके, नरकों के दुःख के बारे में विचारेंगे तो लगेगा, यह दुःख तो कुछ भी नहीं है
नरकों में दुःख परवश हो कर के भोगना पड़ता है, यहाँ पर हम थोड़ा-सा स्ववश हो करके भोगेंगे तो कुछ हमारे कर्मों की निर्जरा ही होगी
अमोघवर्ष महाराज ने नीतिपथ
नीतिपथप्रश्नोत्तर रत्नमालिका किताब में कहा है पराधीनता नारकी-जीवन के समान हैपरवश दुःख भी नरक है और
परवश होकर सुख भोगना से अच्छा है स्ववश होकर दुःख भोग लेना
सूत्र 5 में हमने जाना कि तीसरे नरक तक असुरकुमार देव भी नारकियों को दुःख देते हैं
उन्हें आपस में लड़वाते हैं
इनमें अम्बावरिश जाति के देव बड़े ही संक्लिष्ट होते हैं
इन्होंने पिछले जन्मों में संक्लेश वाले कर्म किये होंगे
जैसे पशु-पक्षियों को लड़ाई वाले खेलों को देखना, आयोजन करना आदि
इन्हें पापानुबन्धी पुण्य भी कहते हैं क्योंकि पुण्य के उदय से मनुष्य पर्याय और योग्यता मिली मगर उसे संक्लेश में लगा कर पाप अर्जन कर रहे हैं
12. रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग में असुरकुमारों को छोड़ कर नौ प्रकार के भवनवासी देवों के और राक्षस जाति को छोड़कर सात प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं