श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 06
सूत्र -04,05
Description
पुण्य और पाप को एक पलड़े में रखना सही नहीं। जितनी कषाय उतना ही आस्त्रव और बंध। पच्चीस क्रियाएँ कौन सी होती है?
Sutra
सकषाया-कषाययो: साम्परायि-केर्या-पथयो:।।6.4।।
इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया: पञ्चचतु:पञ्चपञ्चविंशतिसंख्या: पूर्वस्य भेदा:।।6.5।।
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WINNERS Day 06
7th Aug, 2023
Shilpy Sumit Jain
Delhi
WINNER-1
Archana
Pune
WINNER-2
Shubhada Jogi
Mumbai
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
25 क्रियाओं में से कौनसी क्रिया करने योग्य है?
सम्यक्त्व क्रिया*
दर्शन क्रिया
अनाभोग क्रिया
स्वहस्त क्रिया
Abhyas (Practice Paper):
Summary
हमने जाना कि ईर्यापथ आस्रव में बिना कषाय के
कर्म आत्मा में बस आते-जाते हैं
रुकते नहीं हैं
साम्परायिक आस्रव में कर्म आते हैं और बैठते हैं
आस्रव होते हुए भी ईर्यापथ आस्रव पुण्य आस्रव है
पाप आस्रव नहीं
तेरहवें गुणस्थान में केवली भगवान के अत्यंत सुख देने रूप कर्मों का आस्रव होता है
सिद्धांततः पुण्य और पाप कभी एक नहीं होते
इनमें जमीन आसमान का अन्तर है
जैसे पुण्य से अरिहंत केवली पाँच हजार धनुष ऊपर बैठते हैं
और पापात्मा जमीन पर पड़ा रहता है, नरकों और निगोद में जाता है
इनको एकान्ततः एक कहना आगम विरुद्ध है
और इस अवधारणा से लोगों में अनेकांत धर्म अनुरूप आत्मविशुद्धि, सम्यकपना नहीं आता
आचार्यों द्वारा व्याख्यित, गुणस्थानों और कषायों के अनुसार point to point व्यवस्था
को सोने और लोहे की बेड़ी के उदाहरणों के माध्यम से नहीं उड़ाया जा सकता
इस उदाहरण का आत्मा के भावों से कोई संबंध नहीं है
जितना कषाय भाव होगा, उतना ही कर्मों का आस्रव और तीव्र-बंध होगा
ढीली कषाय में कम आस्रव, कम बंध होगा
सूत्र पाँच इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया: पञ्चचतु:पञ्च-पञ्चविंशति संख्या पूर्वस्य भेदा: में हमने पूर्वस्य यानि साम्परायिक आस्रव के भेद जानें
इन्द्रियों के पाँच
कषाय के चार
अव्रत के पांँच
और क्रियाओं के पच्चीस
इन्हीं भेदों में हमें शुभपना और अशुभपना देखना होगा
आचार्यों ने सर्वाथसिद्धि आदि ग्रंथों में पच्चीस क्रियाएँ के नाम लिखे हुए हैं
इनमें पहली सम्यक्त्व क्रिया में हम जिन-चैत्य, जिन-गुरु आदि आदि से अपने अन्दर सम्यग्दर्शन की वृद्धि करते हैं
मिथ्यात्व क्रिया में जिनधर्म, जिन-लिंग से विपरीत की आराधना करते हैं
प्रयोग क्रिया में किसी भी व्यक्ति को गमनागमन आदि के कार्यों में लगा देते हैं
समादान क्रिया में संयत जीव अविरत, असंयत जीवों के प्रति उन्मुख होते हैं
ईर्यापथ क्रिया में ईर्यापथ गमन करते हुए भी पाप का आस्रव होता है
प्रादोषिकी क्रिया प्रदोष मतलब क्रोध के आवेश में की जाती है
कायिकी क्रिया में प्रादोष भाव के साथ किसी दूसरे को मारने का उद्यम करते हैं
आधिकरणिकी क्रिया में प्रदोष भाव के साथ में हिंसा आदि के उपकरण को ग्रहण करते हैं
पारितापिकी क्रिया में दूसरे को दुःख पहुँचाते हैं, परिताप देते हैं
प्राणातिपातिकी क्रिया में दूसरों के प्राणों का अतिपात करते हैं, घात करते हैं
दर्शन क्रिया में राग से आसक्त होकर दूसरों को उसकी पूर्ति के लिए देखते हैं
स्पर्शन क्रिया में स्पर्श इन्द्रियों के माध्यम से राग की पूर्ति करते हैं
प्रत्यायिकी क्रिया में नए-नए चीजें रखने में आनंद मनाते हैं
समन्तानुपातिकी क्रिया में शरीर के मल-मूत्र को लोगों के आने-जाने के स्थान पर विसर्जित करते हैं
अनाभोग क्रिया में बिना देखें, बिना शोधे ही जमीन पर उठते-बैठते हैं
स्वहस्त क्रिया में दूसरे के करने योग्य काम को स्वयं करते हैं
निसर्ग क्रिया में हम पाप में अनुमति देते हैं, उसकी अनुमोदना करते हैं
विदारण क्रिया में दूसरों द्वारा किये पाप को दुनिया में प्रकाशन कर देते हैं
आज्ञाव्यापादिकी क्रिया में जिन-आज्ञा जैसे षट्-आवश्यक का पालन आदि की अवहेलना करते हैं
अनाकांक्ष क्रिया में शुभ अनुष्ठान के प्रति आदर भाव नहीं होता
आरंभ क्रिया में हिंसा के आरंभ कार्यों की अनुमोदना करते हैं
परिग्राहिकी क्रिया में जीव परिग्रह बढ़ाने की, उसकी सुरक्षा की सोचते रहते हैं हैं
माया क्रिया में जीव अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में मायाचार करता रहता है
मिथ्यादर्शन क्रिया में जीव मिथ्यादृष्टिओं की प्रशंसा करते हैं
उनके गलत रास्ते पर जाने को बहुत अच्छा कहते हैं
और अंतिम अप्रत्याख्यान क्रिया के कारण जीव प्रत्याख्यान नहीं कर पाता
नियम आदि नहीं ले पाता
इन क्रियाओं में पहली सम्यक्तव क्रिया ही करने योग्य है
शेष सभी छोड़ने योग्य हैं