श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 38
सूत्र - 29,30
सूत्र - 29,30
हमें आस्तिक-नास्तिक को वस्तु व्यवस्था से जोड़ना है। आस्तिक की philosophy को समझे। सत् में तीन चीजें होती हैं। स्वभाव का मतलब। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य सिद्धों में कैसे होते हैं? उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जल जले कल्लोलवत यथा।
सद्द्रव्य-लक्षणम् ॥5.29॥
उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् ॥5.30॥
Sugam Jain
Ahmedabad
WINNER-1
दिलीप कुमार सेठी
जबलपुर
WINNER-2
Udit Bakliwal
BEAWAR
WINNER-3
किसी भी तरीके का कोई भी बदलाव नहीं आना क्या कहलाता है?
उत्पाद
ध्रौव्य*
व्यय
पर्याय
हमने जाना कि भारतीय दर्शनों के विभाजन में सांख्यमत को आस्तिक
और जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन को नास्तिक माना गया है
ये निष्पक्ष विभाजन नहीं है
सूत्र उनतीस में सत् लक्षण को समझाते हुए
मुनि श्री ने बताया कि
हमें आस्तिक-नास्तिक को भगवान से नहीं
वस्तु व्यवस्था से जोड़ना चाहिए
जो सत् यानि अस्ति को मानता है वह आस्तिक है
Science भी द्रव्य को सत् मानता है
Einstein के अनुसार mass और energy में relation होता है
Law of conservation of Energy के अनुसार energy न destroy होती है
और न generate
ये सिर्फ अपनी form बदलती है
यह सिद्धांत जैन सिद्धांत के सत् के निकट है
जो absolute truth है
अब हमें आस्तिक की व्याख्या ईश्वर या ब्रह्मा के context से हटकर
व्यापक और सर्व हितकारी दृष्टिकोण से करनी चाहिए
मुनि श्री ने सभी को प्रेरित किया कि अपने-अपने साधनों के through इस विषय को उठायें
यह opposition नहीं; अपील है
हम सामने वाले को गलत सिद्ध न करके
अपील कर रहे हैं कि यह भी एक philosophy है
जो शायद course बनाते समय आप न समझे हों
हमारे प्रमाद के कारण YCB course में
जहाँ हमें parallel classification लेना चाहिए था
हाशिये पर रख दिया गया
आज जैन समाज के हर समर्थ व्यक्ति को
हर political, government approach वाले व्यक्ति को
NCERT, CBSE आदि course बनाने वालों को
इन सिद्धान्तों को शुरू से बदलने की कोशिश करनी चाहिये
तभी भारतीय संस्कृति के साथ में कुछ न्याय होगा
हमने जाना कि द्रव्य अपने अस्तित्व को, existence को बनाये रखता है
ये destroy या generate नहीं होता
सिर्फ change होता है
वस्तुतः वह change नहीं होता
उसकी पर्याय या mode change होती है
और हम कहते हैं द्रव्य भी change हो गया
सूत्र तीस उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् में हमने जाना कि जो ‘उत्पाद व्यय और ध्रौव्य’ से युक्त है वही सत् है
यानी जिस चीज का existence है, उसमें ये तीन चीजें हमेशा होती रहती हैं
उत्पाद में उसके अन्दर एक नयी परिणति या mode या पर्याय उत्पन्न होती है
व्यय में जो उससे जुड़ी
पिछली उत्पन्न पर्याय, उसी समय पर विनष्ट होती है
इस तरह उत्पाद और व्यय चलता रहता है
ध्रौव्य ध्रुव का भाव है
जो हमेशा constant रहता है
द्रव्य का द्रव्यत्व ध्रौव्य है
वह कभी नष्ट नहीं होता
द्रव्य उत्पाद और व्यय की प्रणाली से ही अपने स्वभाव को ज्यों का त्यों बनाये रखता है
यहाँ स्वभाव का मतलब शुद्ध नहीं है
बल्कि स्व यानि अपना निजी भाव है, गुण है
स्वभाव शुद्ध भी हो सकता है और अशुद्ध भी
अचेतन पदार्थ की सत्ता अचेतन रूप
और चेतन पदार्थ की चेतन रूप ही बनी रहती है
हमने जाना कि सिद्ध भगवान में भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता है
सिद्ध होने पर अब वह गति से गत्यांतर नहीं करते
लेकिन उनकी चेतना नष्ट नहीं हुई
वो सत् है
अतः वह अपने ही शुद्ध गुणों में, शुद्ध पर्यायों के साथ में प्रति समय उत्पाद, व्यय करते हैं
शुद्ध रूप परिणमन में उनकी शुद्ध पर्याय उत्पन्न और नष्ट होती है
और शुद्ध स्वभाव ज्यों का त्यों बना रहता है
अशुद्ध स्वभाव में वस्तु में अशुद्ध पर्याय उत्पन्न और नष्ट होती है
हमने जाना कि पर्याय गुण की होती है
और द्रव्य में अनंत गुण होते हैं
इसलिए हर द्रव्य हर समय अनन्त पर्यायों को उत्पन्न कर रहा है, छोड़ रहा है
और स्वयं ज्यों का त्यों रह रहा है
उदाहरण के लिए नदी, समुद्र आदि के जल में तरंगे उसी में से आती हैं
और उसी में विलीन हो जाती हैं
और जल ज्यों का त्यों बना रहता है