श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 45
सूत्र - 30-34
सूत्र - 30-34
Desirable भी बाद में undesirable हो जाता है। दुःख से बचने के लिए दुःखी होना आर्तध्यान है। अनिष्ट के संयोग का नाम आर्तध्यान नहीं। अनिष्ट संयोग होने पर समता भाव धारण करना धर्म ध्यान है। उदाहरण से इष्टवियोगज आर्त ध्यान को समझे। वेदना में अशान्ति होना वेदनाजनित आर्त ध्यान है। निदान आर्त ध्यान। परभव सम्बन्धी निदान आर्त ध्यान। गुणस्थानों में आर्त ध्यान की विवक्षा। मुनि महाराज का आर्त ध्यान। निरन्तर बने रहने वाला आर्त ध्यान संसार का कारण है। छठवें गुणस्थान में निदान आर्त ध्यान नहीं होता।
आर्त-ममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वाहारः॥9.30॥
विपरीतं मनोज्ञस्य॥9.31॥
वेदनायाश्च॥9.32॥
निदानं च॥9.33॥
तदविरत -देशविरत-प्रमत्त-संयतानाम्॥9.34॥
01, Jan 2025
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चौथा आर्तध्यान कौनसा होता है?
इष्टवियोगज आर्तध्यान
अनिष्टसंयोजक आर्तध्यान
वेदना आर्तध्यान
निदान आर्तध्यान*
आर्तध्यान के भेदों में हमने जाना
कुछ undesirable object मिलने पर,
उससे पीछा छुड़ाने पर ही concentrate करना
अनिष्टसंयोगज आर्त ध्यान होता है।
यानि दुःख से बचने के लिए, उसे हटाने के लिए
निरन्तर दुःख पर ही concentrate करना।
कभी हमें undesirable चीज़ें मिल जाती हैं
तो कभी, पहले अच्छी लगने वाली चीज़ से हमें
बाद में hate होने लगती है।
जैसे बहु पहले तो अच्छी थी, पर बाद में उसके तेवर बदल गए।
तो निरन्तर यही सोचते रहना कि उससे पीछा कैसे छुड़ाया जाए
यह आर्तध्यान होता है।
हम हर चीज़ में निरन्तर आर्तध्यान करते रहते हैं-
यह न होता तो ठीक होता,
यह चीज़ यहाँ से हट जाती तो अच्छा होता,
यह ग्राहक नहीं मिलता तो अच्छा था,
ऐसे pain पर concentrate करते रहते हैं।
दरवाज़े के किसी हैंडल या चटकनी से चोट लग गई
इसको कैसे तोड़े? कैसे हटाए? ऐसे आर्तध्यान में हम रहते हैं।
हमने जाना - अनिष्ट का संयोग-मात्र होना आर्तध्यान नहीं होता।
जब उससे हटने के लिए,
वियोग के लिए सोचें, process करें
तब वह आर्तध्यान बनता है।
यदि कर्म का उदय जानकर हम समता भाव रखें और शान्त रहें
तो वही अनिष्ट संयोग हमारे लिए धर्म ध्यान बन सकता है।
सूत्र इक्कतीस विपरीतं मनोज्ञस्य में हमने जाना अनिष्ट संयोग से विपरीत यानि
मन को अच्छी लगने वाली इष्ट चीज़ों के वियोग होने पर
बार-बार उसी में स्मृतिसमन्वाहार करना
दूसरा इष्टवियोगज आर्तध्यान होता है
जैसे कोई हमसे बहुत दूर चला जाए या
हमें छोड़ कर चला जाए या
पहले हमारा था, अब हमारा नहीं रहे।
उस कारण एक कमी खलना,
बस उसी की चाह बने रहना,
कहीं और मन नहीं लगना,
उस वियोग से दुखी बने रहना-
यह सब हमारा आर्तध्यान होता है
क्योंकि हम दुःख पर ही concentrate कर रहे होते हैं।
सूत्र बत्तीस वेदनायाश्च के अनुसार शरीर में रोग हो जाने पर
उससे पीछा छुड़ाने के लिए स्मृतिसमन्वाहार करना,
बार-बार दुखी होना,
निरन्तर उसके प्रतीकार का ही सोचना-
तीसरा ‘वेदनाजनित आर्तध्यान’ होता है।
रोग होने पर हम शान्त नहीं बैठते।
हम जल्दी से ठीक होना चाहते हैं।
किसी और doctor को दिखा लें
कोई और medicine मिल जाए जो जल्दी ठीक कर दे
यह सब पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान कर रहे होते हैं।
“रोग ठीक होने में time तो लगेगा ही
तो हम शान्ति से रह लेते हैं”-
ऐसा सोचकर हम आर्तध्यान से बच सकते हैं।
सूत्र तैतीस निदानं च के अनुसार
भविष्य में मन चाहा सुख मिलने की इच्छा से
धर्म, पूजा आदि करना
निदान नामक आर्तध्यान होता है।
इसमें future prosperity की चिन्ता होती है।
जैसे-
मैं doctor बनूँ ,
या कोई बड़ा collector,
या C.M. बनूँ
जिससे मेरा status बढ़े।
या फिर पुण्य के फल से मैं अगले जन्म में
चक्रवर्ती बनूँ, राजा बनूँ, बड़ा सेठ बनूँ,
संसार के सारे सुख भोगूँ
ऐसे भोगों की आकांक्षा यानि,
sensual pleasures की इच्छा करके
हम निदान आर्तध्यान करते हैं।
सूत्र चौंतीस तदविरत-देशविरत-प्रमत्त-संयतानाम् में हमने जाना, आर्तध्यान-
मिथ्यादृष्टि,
व्रतों से रहित सम्यग्दृष्टि,
देशव्रती श्रावक और
छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान में मुनिराजों को भी हो सकता है।
छठवें गुणस्थान में कभी प्रमाद तीव्र होने से
आर्तध्यान हो सकता है,
पर सप्तम गुणस्थान में आने पर यह अवश्य छूट जाता है।
छठवें गुणस्थान में भी मुनि महाराज को निदान आर्तध्यान नहीं होता
बस पहले के तीन होते हैं।
किसी-न-किसी ‘पर’ के संयोग से
सम्यग्दृष्टियों, संयमासंयमियों और संयमियों को
क्वचित-कदाचित,
आर्तध्यान हो तो सकता है,
लेकिन इससे उनका संयम या सम्यग्दर्शन नहीं छूटता।
इससे विपरीत मिथ्यादृष्टियों का आर्तध्यान
निरन्तर दुःख के साथ, लम्बे समय तक चलता है
और तिर्यंच गति का, संसार का कारण बनता है।