श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 08
सूत्र - 07,08,09
सूत्र - 07,08,09
ब्रह्मचर्य का मतलब शरीर से राग नहीं होना। ब्रह्मचर्य व्रत की परिपक्वता के लिए भावना करने से व्रत दृढ़ होता है । राग और द्वेष मैं समभाव रखना। परिग्रह का मतलब। चेतन, अचेतन, दोनों का मिश्रण भी परिग्रह होता है।कोई भी चीज परिग्रह बन सकती है । सामायिक के लिए आवश्यक- माध्यस्थ भाव।
स्त्रीरागकथा-श्रवण-तन्मनोहरांग निरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीर-संस्कारत्यागाः पञ्च ॥7.7॥
मनोज्ञा-मनोज्ञेन्द्रिय-विषयराग-द्वेषवर्जनानि पञ्च ॥7.8॥
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥7.9॥
01st, Dec 2023
श्रीमती रश्मि जैन
पनागर
WINNER-1
Anitha Dev
Blore
WINNER-2
Anita Jain gangwal
Sawai Madhopur
WINNER-3
सामयिक के लिए कौनसा भाव आवश्यक है?
राग भाव
माध्यस्थ भाव *
क्रोध भाव
द्वेष भाव
हमने जाना कि ब्रह्मचर्य व्रत की पाँचवीं भावना स्वशरीरसंस्कार-त्याग में
हम शरीर को एक शव की तरह देखते हैं
उससे कोई राग नहीं करते
तरह-तरह के cosmetic, उबटन, facial आदि लगाकर पूरे शरीर का संस्कार किया जाता है
बालों, नाखूनों, आँखों, भौहों, नाक, गले आदि हर जगह का शृंगार होता है
जिससे शरीर में राग बढ़ता है
और अंदर ब्रह्मचर्य व्रत की भावना नहीं बचती
इसलिए हमें शरीर को संस्कारित करने का त्याग करना चाहिए
हमें इन पाँच भावनाओं को बार-बार भाना चाहिए
अगर कोई भावना न पले तो भावना करनी चाहिए कि
व्रत के पश्चात् आगम में निषिद्ध क्रिया में प्रवृत्ति करने का क्या प्रयोजन?
व्रत का क्या महत्व रहेगा?
इससे व्रत दृढ़ होता है
और मानसिकता धीरे-धीरे स्थिर होती जाती है
सूत्र आठ मनोज्ञा-मनोज्ञेन्द्रिय-विषयराग-द्वेषवर्जनानि पञ्च में हमने जाना कि
पाँच इंद्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों में राग और द्वेष का वर्जन करना यानि छोड़ना
अंतिम अपरिग्रह व्रत की भावनायें हैं
मनोज्ञ चीजें मन को उत्सुक करती हैं, सुख पहुँचाती हैं
और अमनोज्ञ के कारण से मन में असुहावनापन लगता है
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इंद्रिय के विषय मनोज्ञ या अमनोज्ञ रूप ही होते हैं
मनोज्ञ विषय राग पैदा करते हैं
और अमनोज्ञ विषय द्वेष
हमें किसी भी प्रकार से उत्पन्न राग और द्वेष को छोड़कर, समभाव में रहना है
इससे मन में न तो रागात्मक झुकाव होगा
और न घृणात्मक खिंचाव
हमने जाना कि द्वेष में भी मन में शांति नहीं होती
मन में उस चीज से बचने के भय के कारण एक घृणात्मक वृत्ति पैदा हो जाती है
मन समभाव में नहीं रहता
और दुःखी रहता है
इसलिए किसी वस्तु से अगर राग छोड़ना है, तो घृणा भी छोड़नी है
राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होना ही अपरिग्रह है
परिग्रह अर्थात जो हमारे मन को उससे बांध दे और मन में ग्रहण करने में आ जाए
साम्य भाव में वस्तु- वस्तु में रहती है, मन - मन में है और उपयोग अपने स्वभाव में रहता है
और इसके अभाव में मन वस्तु की तरफ ही inclined होता है
राग में इच्छा होगी कि कब, कैसे मिले?
और द्वेष में इच्छा होगी कि कब, कैसे बचे?
ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ परिग्रह के कारण से हैं
हमने जाना कि मन यदि प्रशिक्षण से वस्तु में ‘मम इदम् - यह मेरा है’ भाव से हट जाए तो यही अपरिग्रह की भावना है
परिग्रह चेतन, अचेतन और मिश्र पदार्थों का होता है
यह छोड़ने योग्य बाहरी परिग्रह भी होता है
और कषाय, स्त्री आदि वेद, नोकषाय आदि भीतरी भाव रूप अभयंतर परिग्रह भी होता है
परिग्रह से रहित मनोवृत्ति में न कुछ मनोज्ञ होता है और न कुछ अमनोज्ञ
इन्द्रिय विषयों में राग-द्वेष से दूर व्यक्ति इतना आत्मनिष्ठ हो जाता है
कि उसे किसी भी चीज में मन जाना, परिग्रह से जुड़ने जैसा लगता है
इस short सूत्र में पूरी दुनिया सिमट गयी है
आचार्य कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कोई भी चीज परिग्रह बन सकती है
द्रव्य में इंद्रियों के विषय आ गए
क्षेत्र में जो स्थान विशेष अच्छा लगने लग जाए आदि
काल में जो काल बहुत अच्छा लगे, जिसमें सुकून मिले जैसे अनुकूल ऋतु
यह एक सूक्ष्म बात है
हमने जाना कि वास्तविक सामायिक भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सामायिक रूप होती है
इंद्रिय विषय सम्बन्धी राग से ही यह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के राग आते हैं
इनके छूटने से आत्मा सामायिक निष्ठ हो जाता है
सूत्र नौ - हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् में हम जानेंगे कि
यदि भावनायें जानने के बाद भी हमारा मन अहिंसा आदि भावों में दृढ़ नहीं हो रहा है
तो हमें क्या विचारना चाहिए?