श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 20
सूत्र - 13
सूत्र - 13
प्रज्ञा और अज्ञान परीषह की अपेक्षा क्षयोपशम का अर्थ। प्रज्ञा तथा अज्ञान परीषह का सद्भाव तथा उसकी परिणति। प्रज्ञा में मद और अज्ञान में दीनता, परीषह का कारण। ज्ञान के धारण करने में ‘मैं” का भाव होना मोहनीय कर्म का उदय, मिथ्यात्व का लक्षण। मोह दशा न होने पर भी ज्ञानी होने का भाव ही…प्रज्ञा परीषह। संयमी तथा अंसयमी दशा मेंं ‘मैं पने’ का भाव, समझे परीषह और मिथ्यात्व में भेद। जाने प्रज्ञा परीषह में ‘मैं पने’ को प्रत्यभिज्ञान से।सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा ‘मैं पने’ का भाव।
ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥9.13॥
05, nov 2024
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किस कर्म के सद्भाव में प्रज्ञा परिषह होता है?
दर्शनावरण कर्म
ज्ञानावरण कर्म *
मोहनीय कर्म
नाम कर्म
संवर के कारणों के प्रकरण में आज हमने तेरहवें सूत्र - ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने में जाना कि
प्रज्ञा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरण के
सद्भाव में,
उदय में,
या उसके कारण से होते हैं।
ज्ञानावरण के क्षयोपशम से
ज्ञान की विशेष परिणति प्रज्ञा कहलाती है।
और किसी विषय में ज्ञान नहीं होने से
अज्ञानता का भाव आना,
अज्ञान कहलाता है।
ज्ञानावरण के क्षयोपशम के कारण
ये दोनों एक साथ चलते हैं।
क्षयोपशम का अर्थ होता है-
कुछ आवरण दबना।
ज्ञानावरण के क्षयोपशम में
ज्ञान की पूर्णता नहीं होती।
कुछ आवरण हटने पर
ज्ञान प्रकट होता है,
जिससे प्रज्ञा होती है
और कुछ ज्ञान प्रकट नहीं होता
जिससे अज्ञान होता है।
ज्ञानावरण के पाँच भेद होते हैं-
मति ज्ञानावरण, श्रुत ज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मनःपर्यय ज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण।
परीषह इनमें से
एक ही कर्म से
या अलग-अलग कर्म से भी हो सकते हैं।
जैसे, श्रुतज्ञान की उत्कृष्टता
श्रुतकेवलीपना है
जिसमें चौदह पूर्वों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है।
जब तक यह नहीं होता,
तब तक श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से
जो श्रुतज्ञान होता है वह प्रज्ञारूप,
और जो ज्ञान नहीं होता, वह अज्ञानरूप होता है।
अलग-अलग कर्मों से देखें तो-
श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से
श्रुतज्ञान तो है
पर अवधि ज्ञानावरण, मनःपर्यय ज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं होने से
उस सम्बन्धी अज्ञान रहता है।
इस प्रकार, एक जीव में
प्रज्ञा और अज्ञान, एक साथ
एक समय में रह सकते हैं।
हमने जाना कि प्रज्ञा और अज्ञान परीषह
मोह से,
मिथ्यात्व से होने वाले
मैं सुखी, मैं दुःखी, मैं ज्ञानी, मैं अज्ञानी
वाले भाव नहीं हैं।
जैसा कि हम पुरानी छहढाला में
‘मैं सुखी-दुखी, मैं रंक-राव’ में पढ़ते हैं।
क्योंकि हम मोही तो
कुछ परीषह सहते ही नहीं।
ये परीषह तो
संयमी, चारित्रवान मुनियों में कहे गए हैं
जिनका मोह control में है,
जिन्होंने मोह के उदय को शान्त कर दिया है,
जो ऋद्धि संपन्न
और जो ज्ञानावरण के उत्कृष्ट क्षयोपशम के साथ भी हो सकते हैं।
सम्यग्चारित्र धारी जीव नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं।
उनका ‘मैं ज्ञानी, मैं अज्ञानी’ भाव
यानि प्रज्ञा-अज्ञान परीषह
मिथ्यात्व वाले नहीं हैं।
इसलिए हमें पुरानी छहढाला पढ़कर
यह ज़िद, यह एकान्त नहीं पकड़ना चाहिए
कि ‘मैं’ का मतलब मिथ्यात्व ही होता है।
‘मैं’ का भाव सम्यग्दृष्टि को,
और चारित्रनिष्ठ मुनि महाराजों को भी हो सकता है।
क्योंकि भले ही वे समता से दुःख सह लेते हैं
कहते नहीं कि मैं दुखी हूँ,
कोई दीनता नहीं लाते,
पर दुःख का वेदन तो करते ही हैं,
तभी तो आहार लेने जाते हैं।
क्षुधा-तृषा की परीषह ‘मैं’ भाव से ही सहन होती है-
कि ‘मैं भूखा हूँ’।
यदि उनमें भाव ही नहीं आया
तो परीषह ही नहीं रहेगा
भाव आया ‘मैं अज्ञानी हूँ’, लेकिन वे उसमें बहे नहीं
उसे ज्ञान से, समभाव से जीत लिया
तभी परीषह होगा, अन्यथा नहीं।
सुख-दुःख का वेदन करने से
मिथ्यादृष्टि नहीं हो जाते।
क्योंकि संज्वलन आदि मोह के,
कषाय के उदय होने से
साता और असाता का वेदन होता ही है।
हमने जाना कि पहले सीखी हुई चीज़ को
आज के ज्ञान से मिलाने से
होने वाला नया ज्ञान
प्रत्यभिज्ञान कहलाता है।
जैसे हमने पुरानी छहढाला के ज्ञान से
आज का प्रकरण जोड़ा।
यह ज्ञानावरण के क्षयोपशम से आता है।
मुनि-महाराज से नया चिन्तन मिलने पर
उनकी प्रशंसा करना,
उनके लिए प्रज्ञा परीषह होता है।
“ये सब चीज़ें बहुत सामान्य हैं
किसी को भी हो जाती हैं”
ऐसा चिन्तन करके वे परीषह को जीतते हैं
और हमारी प्रशंसा से प्रसन्न नहीं होते
अपितु स्वयं में ही प्रसन्न रहते हैं।