श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 31
सूत्र -29,30,31
सूत्र -29,30,31
सौधर्म-ऐशान कल्प में देवों की उत्कृष्ट आयु।तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अनुसार उत्कृष्ट आयु का वर्णन।उपरोक्त सूत्र के सामान्य अर्थ से अलग एक अन्य दृष्टिकोण से चिन्तन।आयु के विषय में ग्रंथों के मत-मतान्तर, वह इस सूत्र में अलग-अलग विभक्तियों के प्रयोग से स्पष्ट हो जाते हैं।सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग की उत्कृष्ट आयु।यह उत्कृष्ट आयु इन्द्र या कुछ विशेष देवों की ही हो सकती है, सभी देवों की नहीं।सानत्कुमार-माहेन्द्र के आगे के स्वर्गों के देवों की उत्कृष्ट आयु।सूत्रों का अर्थ करते समय पूर्वापर विचार करना चाहिए, जिससे सूत्र के अभिप्राय को समझा जा सकें।सूत्र के द्वारा विभिन्न स्वर्गों के देवों की उत्कृष्ट आयु की गणना।
सौधर्मैशानयो:सागरोपमेअधिके।l4.29ll
सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: सप्त॥4.30॥
त्रि-सप्त-नवैकादश-त्रयोदश-पञ्चदशभि-रधिकानितु ॥4.31॥
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सौधर्म इंद्र जिस सभा में रहता है उसका नाम क्या है?
सौधर्म सभा
धर्म सभा
सुधर्मा सभा*
धर्मेंद्र सभा
सूत्र उन्तीस सौधर्मै-शानयो: सागरोपमे-अधिके का अर्थ
आचार्य पूज्यपाद एवं अकलंकदेव आदि टीकाकारों के अनुसार सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागर से कुछ अधिक होती है
लेकिन इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि ये आयु इन्द्रों की है या किसी अन्य देव की भी हो सकती है
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अनुसार यह उत्कृष्ट आयु इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक एवं त्रायस्त्रिंश देवों की होती है
इससे हमने समझा कि उत्कृष्ट स्थिति से आचार्यों का अभिप्राय
सिर्फ इन्द्र
या इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रायस्त्रिंश
अथवा सामान्य देव भी हो सकता है
सूत्र का विश्लेषण करते हुए मुनिश्री ने समझाया कि यदि सौधर्मैशानयोः को षष्ठी द्विवचन मानें तो अर्थ निकलेगा
'सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के' देवों की उत्कृष्ट आयु
या 'सौधर्म और ऐशान स्वर्ग की' उत्कृष्ट आयु
और यदि सौधर्म और ऐशान को स्वर्ग के स्थान पर इन्द्र लें तो अर्थ निकलेगा
केवल सौधर्म और ऐशान इन्द्रों की उत्कृष्ट आयु
इसी प्रकार सौधर्मैशानयोः को सप्तमी द्विवचन मानने से अर्थ निकलेगा 'सौधर्म और ऐशान स्वर्गों में' उत्कृष्ट आयु यानि किसी भी देव की आयु
इन्द्रों के स्थान पर स्वर्गों को मानने से तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ का अभिप्राय भी सूत्र के अनुसार चलेगा
हमने जाना कि सुधर्मा नाम की सभा के इन्द्र को सौधर्म इन्द्र कहते हैं और उसके स्वर्ग को सौधर्म स्वर्ग/ कल्प
तत्त्वार्थ-सूत्र के सूत्रों में मुख्य रूप से इन्द्रों की ही बात सामने आती है
सूत्र तीस सानत्कुमार-माहेन्द्रयोः सप्त के अनुसार सानतकुमार-माहेन्द्र इन्द्र या कल्प की उत्कृष्ट आयु सात सागर से कुछ अधिक है
इसमें “सागर” और “कुछ अधिक” पिछले सूत्र की अनुवृत्ति से आता है
हमने पहले सूत्र बीस में जाना था कि ऊपर-ऊपर के देवों की आयु, वैभव, प्रभाव आदि बढ़ता जाता है
और इन्द्र और सामानिक देव की आयु समान होती है
तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ के अनुसार त्रायस्त्रिंश और प्रतीन्द्र की आयु भी इन्द्र के समान होती है
हमने जाना कि जिनका वैभव समान है, उनकी आयु भी समान की जा सकती है
और जिनके वैभव में अन्तर है उनकी आयु में भी अन्तर आ जाएगा
इस तर्क से तो उत्कृष्ट स्थिति उच्च पद धारी इन्द्र-सामानिक आदि की ही होगी
उसी स्वर्ग के निचले या निम्न पदों के धारी देव की नहीं
सूत्र इकतीस त्रि-सप्त-नवैकादश- त्रयोदश-पंचदशभि-रधिकानि तु में “भि” का अर्थ “इनसे” और “अधिकानि” का अर्थ “अधिक करना” है
विशेष तरीके से लिखे इस सूत्र में दी हुए आयु को ज्यों का त्यों न लेकर ऊपर नीचे के स्वर्ग की आयु में जोड़ना है
ऐसा न करने से ब्रह्म स्वर्ग की आयु सानत्कुमार स्वर्ग से कम हो जाएगी
इस प्रकार ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर की आयु सात+तीन= दस सागर
लान्तव-कापिष्ट की सात+सात= चौदह सागर
शुक्र-महाशुक्र की सात+नौ= सोलह सागर
शतार-सहस्रार की सात+ग्यारह= अठारह सागर
आनत-प्राणत की सात+तेरह= बीस सागर
और आरण-अच्युत की सात+पन्द्रह= बाईस सागर उत्कृष्ट आयु होती है