श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 13
सूत्र - 20, 21
सूत्र - 20, 21
श्रुतज्ञान क्या होता है? ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के साथ में वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम भी आवश्यक? द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत क्या होता है? दृष्टिवाद अङ्ग! ग्रन्थों को प्रामाणिक कैसे माने? बात किनकी मानी जाएगी? श्रुतकेवली कौन होते हैं? श्रुतज्ञान अनादि अनन्त है? श्रुत ज्ञान ही सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान?
श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम् ।।1.20।।
द्वयनेक द्वादश भेदं ।।1.21।।
Abha Jain
Chandigarh
WINNER-1
Sunita Jain
Kota
WINNER-2
Ruchi Jain
Alwar
WINNER-3
निम्न में से दृष्टिवाद अङ्ग का भेद कौनसा नहीं हैं?
पूर्वगत
प्रथमानुगत *
प्रथमानुयोग
चूलिका
सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में मतिज्ञान के पश्चात् आज हमने श्रुतज्ञान को समझा
सूत्र 20 के अनुसार ‘श्रुतं मतिपूर्वं’ श्रुतज्ञान, मतिज्ञान पूर्वक ही होगा
श्रुतज्ञान श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है
परन्तु फिर भी निमित्त रूप इससे पहले मतिज्ञान होता है
हर ज्ञान के लिए ज्ञानावरण कर्म के साथ साथ वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम भी आवश्यक है
इससे जानने की क्षमता आती है
श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से "जानना" और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जानने की "क्षमता" आती है
श्रुत ज्ञान के दो भेद होते हैं
पहला अङ्ग बाह्य जो अनेक प्रकार का होता है; इसमें दस वैकालिक आदि ग्रन्थ को स्वीकारते हैं
और दूसरा अङ्ग प्रविष्ट या द्वादशाङ्ग जो बारह प्रकार का होता है
जिनवाणी को श्रुतज्ञान भी कहते हैं क्योंकि इससे हमें पदार्थों का ज्ञान होता है
श्रूयते इतिश्रुतं अर्थात
जिससे सुना जाये, वह भी श्रुत
जो सुना जाये, वह भी श्रुत
अतः श्रुत ज्ञान में जो सुन रहे हैं और जिसके माध्यम से सुन रहे हैं दोनों आते हैं
हमें शब्द से पदार्थ का ज्ञान होता है
श्रुत के दो भेद भी होते हैं
द्रव्यश्रुत - जो श्रुतज्ञान में सहायक सामग्री है जैसे printed जिनवाणी
और भावश्रुत - जो हमारे अन्दर इस द्रव्य श्रुत को समझने की क्षमता है
हम भाव श्रुत के अनुसार ही द्रव्य श्रुत को समझ पाएँगे
द्रव्यश्रुत का अर्थ द्वादशाङ्ग भी होता है
बारहवें अङ्ग दृष्टिप्रवाद अंगः के 5 भेद होते हैं - पूर्व, प्रथमानुयोग, परिक्रम, सूत्र, चूलिका
इसमें पूर्व के चौदह भेद होते हैं
इन भेदों और 12 अंगों को मिलाकर बारह अङ्ग चौदह पूर्व या अङ्ग प्रविष्ट श्रुतज्ञान कहते है
हमने समझा कि तीर्थंकरों से यह ज्ञान सात रिद्धि धारी गणधर परमेष्ठी तक आता है
वहाँ से श्रुतकेवली तक और प्रमाणिक आचार्यों की परम्परा तक आता है
इसी परंपरा में आरातीय आचार्यों ने इसे लिपिबद्ध किया है
अतः यह प्रामाणिक है
हमें जो ज्ञान मिला हुआ है वह बूँद तो है लेकिन उस बूँद-बूँद में पूर्ण मूल है, यह सारभूत है
तीर्थंकर भगवान को ग्रन्थों के मूल कर्ता, गणधर और श्रुताकेवली को उत्तर कर्ता और आरातीय आचार्यों को उत्तरोत्तर ग्रन्थ कर्ता कहा जाता है
हमने जाना कि श्रुत ज्ञान के प्रवाह की अपेक्षा से तो अनादि और anant है
लेकिन ग्रन्थ की रचना की अपेक्षा सादि सांत है