श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 18
सूत्र - 18
सूत्र - 18
मिथ्या शल्य । निदान शल्य । सबसे बड़ी शल्य कौन सी है?
नि:शल्यो व्रती॥7.18॥
20th, Dec 2023
Pramita Jain
Firozabad Up
WINNER-1
Asha Jain
Jabalpur
WINNER-2
Archana Lohade
Nashik
WINNER-3
सबसे बड़ी शल्य कौनसी है?
माया
मिथ्या *
निदान
स्वार्थ
हमने जाना कि माया, मिथ्या और निदान शल्य से रहित होना भाव लिंग की पहचान है
मुनि महाराज ही नहीं व्रती श्रावक और अविरत सम्यग्दृष्टि भी भाव लिंगी, द्रव्य लिंगी होते हैं
बाहर से खूब पूजा-भक्ति करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि
जिसके अंदर मिथ्या शल्य पड़ी हुई है
वह भी द्रव्य लिंगी हैं
वे द्रव्य रूप से सम्यग्दर्शन को तो पालते हैं
पूजा करते हैं
शास्त्रों का ज्ञान बाँटते हैं
लोगों को धर्म-मार्ग पर लगाते हैं
इसी कारण उनकी वाहवाही होती है
लेकिन भीतर से तत्त्व का श्रद्धान और रूचि नहीं होती
दूसरों को बाँटते हैं और खुद खाली हैं
मिथ्या शल्य का मतलब ही है, भीतर आत्म तत्त्व की कोई रुचि, श्रद्धान नहीं होना
आत्म-तत्त्व की प्रधानता वाले आध्यात्मिक ग्रंथों को सौ-सौ बार पढ़कर, पढ़ाकर भी
आत्म तत्त्व की रूचि बने ऐसा ज़रूरी नहीं है
लोग तो एक trend के चलते उनको पढ़ाने के लिए मजबूर कर देते हैं
बिना तत्त्व श्रद्धान के वे तत्त्व की बातें करते हैं
इसका संबंध सम्यग्दर्शन से है
मुनि श्री ने समझाया कि मिथ्या शल्य के कारण, एक भीतर से मिथ्यादृष्टि भी
बाहर से अविरत सम्यग्दृष्टि बना रहता है
बाहर से सम्यग्दर्शन की प्रक्रियायें, व्यवहार, आचरण दिखता है
लेकिन भावों से सम्यग्दर्शन नहीं होता
माया शल्य का सम्बन्ध पंचम गुणस्थान से है
इसके कारण जीव भीतर से अपने व्रत का आस्वादन नहीं कर पाता
व्रत लेने के बाद भी उसकी भावना के साथ उसमें तत्पर नहीं हो पाता
निदान का मतलब है आगामी भोगों की आकांक्षा
जो केवल पुण्य इकट्ठा करने की भावना से मुनि व्रत लेते हैं
उनमें निदान की मुख्यता होती है
क्योंकि यह भी भोगाकांक्षा का भाव है
पुण्य के फल से संसार ही मिलेगा
यह निदान भी एक शल्य रूप में होता है
जो महाव्रतों को पूर्ण रुप से आत्मसात नहीं होने देता
वैसे छठवें-सातवें गुणस्थान में निदान शल्य नहीं होती
लेकिन मुनि व्रत की अपेक्षा से निदान शल्य मुख्य रूप से छठवें-सातवें गुणस्थान से सम्बंधित है
सभी व्रतियों को - अणुव्रती, महाव्रती और छोटे-छोटे व्रत धारियों के लिए
इन तीन शल्यों से रहित होना ज़रूरी है
हमने जाना कि शल्य से रहित तभी होते हैं
जब केवल आत्मा को शुद्ध करने की इच्छा रहती है
दुनिया में दूसरे लोग भी अहिंसादि व्रत ले लेते हैं
क्योंकि उन्हें हिंसादि अच्छे नहीं लगते
पर वे आत्मा, आत्म-कल्याण को नहीं समझते
ये उनका उद्देश्य नहीं है
इसलिए वे शल्य रहित नहीं होते
और हम उन्हें व्रती नहीं कह सकते
हमने जाना सुखपाने की अभिलाषा में
किसी non-jain व्यक्ति को व्रत तो आसानी से दिलवाया जा सकता है
पर उसे शल्य रहित बनाना
उसे तत्त्व पर श्रद्धान कराना
उसका मायाचार और निदान भाव मिटाना कठिन होता है
समाज में बहुमान पाने के लिए
अपने छल भाव को छिपाकर
व्रत लेना आसान है
इसलिए आचार्य ने व्रत और व्रती की परिभाषा अलग-अलग बताई है
यूँ तो जिसके पास धन है वो धनी है
राग है वो रागी है
तो जिसके पास व्रत हैं वो व्रती होना चाहिए
लेकिन यहाँ ground साफ़ करने के लिए
निःशल्य होने की एक शर्त और डाल दी
इसमें सम्यग्दर्शन, निश्छलता, भावी भोगों की आकांक्षा सभी समाहित हो गए
इसलिए व्रत लेने मात्र से व्रती नहीं होते, नि:शल्य होने से व्रती होते हैं
सम्यग्दृष्टि जीव बिना व्रत के भी मोक्ष की ही इच्छा करता है
संसार से उसकी इच्छा छूट जाती है
इसीलिये मिथ्या शल्य माया और निदान दोनों शल्यों से बढ़कर है
यह माया और निदान दोनों को connect करती है
इसके छूटने पर दोनों छूट जाती हैं
क्योंकि जहाँ तत्त्व में रूचि उत्पन्न हो जाएगी
वहाँ अन्य कहीं रूचि कैसे होगी?