श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 41
सूत्र - 32,33
सूत्र - 32,33
सप्त भंग क्या होते है? वक्ता की इच्छा का नाम विवक्षा है। पहले सिद्धान्त फिर अध्यात्म को समझे। वस्तु को एकान्त रूप मानना बहुत बड़ी भूल है। स्निग्ध और रूक्षपने से पुद्गलों में बंध होता है।
अर्पिता-नर्पित-सिद्धे:॥5.32॥
स्निग्धरूक्षत्वाद्बंध: ॥5.33॥
Renuka Jain
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Manju Jain
Jagdalpur
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सुनील कुमार जैन
सागर
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सप्तभंगी व्यवस्था में पाँचवा भंग कौनसा है?
नित्य
नित्य-अनित्य
नित्य-अवक्तव्य*
अवक्तव्य
सूत्र बत्तीस में आचार्य महाराज ने विरोधी बातों की सिद्धि की है
इसे समझाने के लिए मुनि श्री ने स्याद्वाद शैली की सप्तभंगी व्यवस्था समझाई
वस्तु के प्रत्येक गुणधर्म के कथन की अपेक्षा सात भंग बनते है
वस्तु के नित्य धर्म को मुनि श्री ने सात भंग के द्वारा समझाया
एक धर्म कहने से उसका विरोधी धर्म आ ही जायेगा जैसे नित्य के साथ अनित्य धर्म(गुण)
सामने वाला किसी एक property के लिए इन्हीं सात प्रकार के प्रश्न पूछ सकता है
और ये बताने के बाद कुछ और शेष नहीं बचता है
ये सात भंग हैं
पहला- वस्तु कथञ्चित नित्य है
दूसरा - वस्तु कथञ्चित अनित्य है
तीसरा - वस्तु कथञ्चित नित्य-अनित्य दोनों अर्थात् उभयात्मक है
चौथा - वस्तु कथञ्चित अवक्तव्य है अर्थात् इसके सभी धर्म एक साथ कहे नहीं जा सकते
नित्य, अनित्य या उभयात्मक होते हुए भी उसके सभी धर्मों को एक साथ नहीं कह सकते
इसलिए पाँचवाँ, छटवाँ और सातवाँ भंग है कि वस्तु कथञ्चित
नित्य अवक्तव्य है
अनित्य अवक्तव्य है
और नित्य-अनित्य अवक्तव्य है
हमने जाना कि वक्ता जिसे सिद्ध करना चाहता है वह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है
इसे विवक्षा कहते है
यदि हमारी इच्छा वस्तु को नित्य बताने की है तो
अलग-अलग time, space, quality में
अलग-अलग पर्याय के साथ change होते हुए भी
हम उसे नित्य ही बतायेंगे
‘तद्भावाऽव्ययं नित्यम्’ - उस भाव का कभी व्यय नहीं होता
इसलिए वक्ता को वस्तु के सभी गुणधर्मों का ज्ञान होना चाहिये
स्याद्वाद का ज्ञानी वक्ता हमेशा विवक्षा से बात करता है चाहे वो विवक्षा बताए या न बताए
बौद्ध धर्म वस्तु को सर्वथा अणिच्च यानि अनित्य मानता है
संसार में कुछ भी नित्य नहीं है
विचार, शरीर और मोक्ष भी अनित्य हैं
वस्तुत: realistic nature अनित्य है
हम अपने भ्रम के कारण अपने कल को आज से जोड़ते हैं
इस तरह के तर्क से वे अपनी philosophy में अनुसार चीजों को संभाल लेते हैं
यह एकान्त धारणा एकान्तवाद है
ब्रह्मवादी वस्तु को सर्वथा नित्य मानते हैं
उनके अनुसार संसार और पदार्थ हमेशा नित्य है
जैन दर्शन वस्तु को कथञ्चित नित्य और कथञ्चित अनित्य मानता है
उसमें दोनों धर्म हैं
ऐसा सिर्फ जैन दर्शन ही मानता है
मुनि श्री ने समझाया की हमें पहले सिद्धान्त फिर अध्यात्म को समझना चाहिए
अन्यथा जैन दर्शन में भी कुछ एकान्तवादी पैदा हो जाते हैं
उनके अनुसार आत्मा नित्य है
अकर्ता है
भोक्ता नहीं है
सर्वथा शुद्ध है
वे वस्तु के सभी धर्माें को नहीं स्वीकारते
समयसार जी पढ़कर वे आत्मा को अभेद रूपी ही मानते हैं
भेद आते ही वे उसे व्यवहार मानते हैं
जबकि व्यवहार से हम वस्तु को नकार नहीं सकते
उनके अनुसार आत्मा बस अखंड और ज्ञायक स्वरुप है और कुछ नहीं है
स्याद्वाद तो मात्र कहने की पद्धति है
ऐसे लोग गलत व्याख्याएँ कर लोगों को भ्रमित करते हैं
जैन दर्शन में स्याद्वाद की ऐसी परिभाषाएँ नहीं है
हमें अर्पित-अनर्पित दोनों धर्मों को समय-समय पर लागू करना होता है
न्यायिक आचार्यों की सबकी बड़ी विशेषता है कि वे मानते हैं
कि वस्तु जैसी होती है, वैसी कही जाती है
हर वस्तु के अनेक रूप हैं
भेद-अभेद
एक-अनेक
नित्य-अनित्य
किसी धर्म की अपेक्षा से वो भेद रूप है और किसी अन्य धर्म की अपेक्षा अभेद
यदि हम एक ही धर्म स्वीकार करेंगे तो हम एकान्तवादी हो जायेंगे
वस्तु को एकान्त रूप मानना बहुत बड़ी भूल है
इस प्रसंग में सारे जैन दर्शन को समेटा जा सकता है
हमने जाना कि वस्तु को केवल अर्पित-अनर्पित धर्म के साथ सिद्ध करने से ही आत्मसिद्धि होगी
क्योंकि हमारे ज्ञान में ही आत्मा सही नहीं होगी तो सिद्धि कैसे होगी?
सूत्र तेतीस स्निग्ध-रूक्षत्वाद्-बन्ध: में हमने जाना कि
स्निग्ध और रूक्षपने से पुद्गलों में बंध होता है
यानि स्निग्ध पुद्गल परमाणु और रूक्ष पुद्गल परमाणु बंध को प्राप्त होते हैं