श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 23
सूत्र - 17,18
सूत्र - 17,18
एक जीव में 19 परीषह ही एक साथ हो सकते हैं। संवर का आखिरी कारण चारित्र। हर परिस्थिति में समभाव रखना चाहिए। सामायिक चारित्र। संयम और चारित्र- एक ही वस्तु। सराग चारित्र, वीतराग चारित्र में यह अन्तर होता है।
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशते:॥9.17॥
सामायिकच्छेदोप-स्थापना-परिहार-विशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यात-मिति चारित्रम्॥9.18॥
11, nov 2024
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निम्न में से कौनसा परिषह निषद्या परिषह के साथ नहीं हो सकता?
चर्या*
अदर्शन
याचना
शीत
संवर के कारणों के प्रकरण में
सूत्र सत्रह में हमने जाना-
एकादयो यानि एक को आदि लेकर
‘भाज्या’ यानि विकल्प रूप से
‘युगपद्’ अर्थात् एक साथ
एकस्मिन् यानी एक जीव में
एकोनविंशति यानी बीस में एक कम
अर्थात् एक जीव को एक साथ उन्नीस परीषह हो सकते हैं।
‘चर्या’ अर्थात् चलना,
‘निषद्या’ अर्थात् बैठना और
‘शय्या’ अर्थात् शयन की स्थिति,
ये तीनों एक साथ नहीं होते।
चलते हुए बैठ नहीं सकते, न सो सकते।
शयन करना और शयन की स्थिति अलग-अलग होते हैं।
बैठे-बैठे सोना शय्या परिषह नहीं होता।
एक करवट पर सोना शय्या कहलाता है।
इसमें कष्ट होता है
जैसे बैठे या खड़े रहने से अधिक ठण्ड लेटने पर लगती है।
शीत और उष्ण में भी एक बार में
एक ही परीषह संभव है
इस प्रकार बाईस में से तीन निकालकर
एक समय पर उन्नीस परीषह हो सकते हैं।
प्रज्ञा और अज्ञान एक साथ हो सकते हैं
जैसा हमने पहले जाना था कि
जितना कर्म का क्षयोपशम होगा
उतना ज्ञान प्रकट होकर प्रज्ञा परीषह कराएगा।
और जितना आवरण रहेगा
उतना अज्ञान का कारण होगा।
सूत्र अठारह में हमने संवर के अन्तिम कारण चारित्र को जाना
चरण यानी
चलना,
चर्या करना।
अपनी आत्मा में ही
रुकने रूप,
भ्रमण करने रूप,
चलने रूप,
विहार करने रूप प्रवृत्ति
चारित्र कहलाती है।
इसके पाँच भेद होते हैं-
सामायिक,
छेदोपस्थापना,
परिहारविशुद्धि,
सूक्ष्मसाम्पराय और
यथाख्यात।
इनमें सामायिक चारित्र सर्वप्रमुख होता है
साधक सबसे पहले इसी का संकल्प लेता है।
अन्य चारित्र इसी की वृद्धि करने रूप होते हैं।
और इसके बिना अन्य कोई भी चारित्र नहीं हो पाता।
सामायिक का मतलब होता है-
समभाव का आलम्बन लेना,
हमेशा समभाव की स्थिति में रहना।
उसी में प्रवृत्ति करना।
प्रवचनसार जी के अनुसार-
श्रमण वही होता है जो-
‘सम-सत्तु-बंधु-वग्गो’- शत्रुओं और बंधुओं में
‘सम-सुह-दुक्खो’ - सुख और दुःख में,
‘पसंस-णिंद-समो’ - प्रशंसा और निन्दा में,
‘सम-लोट्ठ-कंचणो’ - लोट्ठ और कंचण
यानि मिट्टी और स्वर्ण में, और
‘जीविद-मरणे-समो’ - जीवन और मरण में
समभाव रखे।
सामायिक चारित्र यम रूप होता है।
श्रमण संकल्प लेते हैं कि-
‘सर्व सावद्य योग विरतोऽस्मि’
मैं सभी प्रकार के सावद्य यानी पाप योगों से,
हिंसात्मक मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों से विरत होता हूँ।
इस एक भाव में ही
व्रत, समिति आदि सब समाहित हो जाते हैं
यही एक प्रमुख है।
कुछ निश्चयात्मक विद्वान चारित्र और संयम में भेद करते हैं।
वे संयम का मतलब प्रवृत्ति करना
और चारित्र का मतलब
अपनी आत्मा में आना, रुकना बताते हैं।
वे संयम को व्यवहार और चारित्र को निश्चय रूप बताते हैं।
किन्तु यह युक्ति-युक्त नहीं है।
आचार्यों ने पाँच भेदों के साथ
चारित्र और संयम दोनों शब्दों का उपयोग किया है।
सूत्र अठारह में इन्हें ‘इति चारित्रम्’ से
चारित्र कहा गया है।
और षटखंडागम आदि में इन्हें संयम कहा गया है
सामाई संयम,
छेदोवट्ठावण संयम,
परिहार-विसोही संयम।
अत: चारित्र और संयम एक ही चीज़ होती है।
सामायिक एक-रूप होता है,
यानि एक प्रकार का चारित्र है तो सामायिक है।
दो प्रकार के चारित्रों में-
सराग चारित्र और वीतराग चारित्र,
अपहृत संयम और उपेक्षा संयम, और
प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम आते हैं।
व्रत के, चारित्र के पालन में अनुराग सराग चारित्र कहलाता है।
इसमें पाप से विरति होती है,
शुभ से, पुण्य से नहीं।
श्रमण का शुभ-अशुभ दोनों को समान समझ कर
उनसे अपना मन हटाकर
केवल निज स्वरूप में स्थित होना
और उसी में उपयोग लगाना,
वीतराग चारित्र कहलाता है।
इसे उपेक्षा चारित्र भी कहते हैं
उपेक्षा यानि कुछ नहीं करना,
माध्यस्थ भाव रखना।
और अपहृत संयम मतलब जीवों को बचा कर प्रवृत्ति करना
प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम भेद इसी के अन्दर आते हैं।