श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 57
सूत्र -39,40
सूत्र -39,40
दूसरे शुक्लध्यान का काम घातिया कर्मों का क्षय करना। 13वें गुणस्थान में प्रक्रियाएँ समुद्घात आदि के माध्यम से चलती हैं। शुक्लध्यान में योग का कितना आलम्बन लेना पड़ता है, यह इस सूत्र में बताते हैं। शुक्ल ध्यान में योग भी अन्तर्मुहूर्त के लिए होते हैं । योगों का परिवर्तन बड़े जल्दी जल्दी होता है इसलिए किसी के अनुभव में नहीं आते। तीसरे शुक्लध्यान में केवल एक सूक्ष्म काय योग है। 14वें गुणस्थान में last के दो समयों में 85 कर्मों की निर्जरा होती है।
पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्म- क्रिया-प्रतिपाति-व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि॥9.39॥
त्र्येक-योग-काय-योगा-योगानाम्॥9.40॥
06, Feb 2025
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WINNER-3
योगों से रहित कौनसा शुक्लध्यान है?
तीसरा
दूसरा
चौथा*
पहला
शुक्ल ध्यान के प्रकरण में हमने जाना
प्रथम शुक्ल ध्यान मोह का उपशम या क्षय करता है।
मोह के क्षय के फलस्वरुप जीव बारहवें गुणस्थान क्षीणमोह में पहुँचता है
जहाँ वह छद्मस्थ वीतराग होता है।
क्योंकि वहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म शेष रहते हैं।
12वें गुणस्थान में इन तीनों कर्मों का क्षय करने के लिए उपयुक्त
ध्यान की अग्नि,
चित्त की स्थिरता,
शरीर का संहनन होता है।
दूसरा शुक्ल ध्यान करके इन शेष कर्मों का भी क्षय किया जाता है
और जीव तेरहवें गुणस्थान में पहुँचता है।
द्वितीय शुक्ल ध्यान के फलस्वरुप केवलज्ञान होता है
अर्थात् इसका काम बारहवें में और फल तेरहवें गुणस्थान में दिखता है।
मुख्य रूप से दूसरा शुक्ल ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है।
लेकिन मतान्तर से पहले दोनों ध्यान,
ग्यारहवें और बारहवें दोनों गुणस्थानों में होते हैं।
तेरहवें गुणस्थान में केवली भगवान
समुद्घात आदि के द्वारा कर्म की निर्जरा करते हैं
और अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर,
अपनी सूक्ष्म क्रिया में स्थित होकर तीसरा शुक्ल ध्यान करते हैं
जिसके फलस्वरूप वे चौदहवे गुणस्थान में पहुँचते हैं।
जहाँ चतुर्थ शुक्लध्यान सबसे अधिक कर्मों का क्षय करता है
और आत्मा को शुद्ध बनाकर मोक्ष पहुँचा देता है।
सूत्र चालीस त्र्येक-योग-काय-योगा-योगानाम् में हमने जाना
पहले शुक्ल ध्यान में तीनों योग हो सकते हैं।
यानि उसमें इतना समय होता है कि
एक ही ध्यान में मनोयोग, वचनयोग, काययोग तीनों परिवर्तित हो सकते हैं।
यह परिवर्तन अत्यन्त सूक्ष्मता से होता है
इसलिए किसी को पकड़ में नहीं आता।
प्रथम शुक्लध्यान से कम समय दूसरे का, उससे कम तीसरे का और सबसे कम समय चौथे शुक्लध्यान का होता है।
पर यह सब होता अन्तर्मुहूर्त में ही है।
गुणस्थान और शुक्लध्यानों के ये अन्तर्मुहूर्त सूक्ष्म होते हैं
छने पानी की मर्यादा वाला अड़तालीस मिनट के अन्तर्मुहूर्त जैसे नहीं।
ये तो seconds के भी parts होते हैं।
असंख्यात समय की एक आवली होती है।
एक आवली से एक समय अधिक से लेकर अड़तालीस मिनट में एक समय कम तक
यह सब time period अन्तर्मुहूर्त होता है।
दूसरे शुक्ल ध्यान में योगों का परिवर्तन नहीं होता
तीनों में से कोई भी एक योग स्थिर रहता है।
या तो वचनयोग, या काययोग, या फिर मनोयोग।
और तीसरे में केवल सूक्ष्म काययोग होता है।
तीर्थंकर समवशरण छोड़कर योग निरोध की प्रक्रिया करते हैं।
उस समय प्रवृत्ति होने के कारण
उनके योग स्थूल(बादर) होते हैं।
पहले वे उन्हें सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग और काययोग में परिवर्तित करते है
फिर सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोग को नष्ट कर केवल सूक्ष्म काययोग में आ जाते हैं।
तब तीसरे शुक्लध्यान से
वह सूक्ष्म काययोग भी स्वतः नष्ट हो जाता है
जिससे वह अयोगी होकर चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं।
उसमें चौथा शुक्ल ध्यान होता है जहाँ कोई भी योग नहीं होता।
उनका काया से कोई सम्बन्ध नहीं रहता।
योग ही आत्मा के प्रदेशों को चलायमान करते हैं
इसलिए योगों के स्थिर हो जाने से
आत्मप्रदेश भी एक ही संरचना में स्थिर हो जाते हैं।
जैसे मनुष्य के आकार के साँचे में अन्दर मोम भरा हो
और वह मोम उस साँचे की पकड़ छोड़ दे
ऐसे ही आत्मा नोकर्म की, शरीर की पकड़ छोड़ देता है।
चौदहवें गुणस्थान का काल पाँच ह्रस्व अक्षर बोलने मात्र प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है
उसके भी last के दो समयों में
सबसे अधिक यानि पिच्च्यास्सी(85) कर्मों की निर्जरा होती है।
और जीव को सिद्ध गति की प्राप्ति हो जाती है।
अब उनके आत्मा के प्रदेशों की बनावट में कोई परिवर्तन नहीं आ सकेगा।
वे अनन्त काल तक ऐसे ही बने रहेंगे।
क्योंकि वहाँ पर कोई योग नहीं होता।