श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 02
सूत्र -01,02
सूत्र -01,02
मिश्र अवस्था कब होती है ? वचन योग और काय योग के भेद जानिए। जो योग है वही आस्रव है। तेरहवें गुणस्थान तक योग चलता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय योग: बंध: हेतवः। सयोग केवली योग सहित होते है।
काय-वाङ् - मन:कर्मयोगः॥1॥
स आस्रवः॥2॥
2023
Meena
Latur
WINNER-1
रजनी जैन
GHAZIABAD
WINNER-2
Nisha Jain
गरोठ जिला मंदसौर
WINNER-3
मनोयोग के कितने भेद होते हैं?
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हमने जाना कि छह प्रकार के काययोग तीन शरीरों के अनुसार होते हैं
जन्म लेने के अंतर्मुहूर्त तक जीव मिश्र अवस्था में रहता है
और इस अवस्था में उसे शरीरगत मिश्र काययोग होता है
अन्तर्मुहूर्त के बाद आयु पर्यन्त तक शरीरगत काययोग रहता है
औदारिक शरीरी जीवों के जन्म से अन्तर्मुहूर्त तक औदारिक मिश्र काययोग होगा
और उसके बाद औदारिक काययोग
वैक्रियिक शरीरी जीवों के पहले वैक्रियिक मिश्र काययोग
और फिर वैक्रियिक काययोग होगा
इसी प्रकार छठवें गुणस्थान में प्रमत्त संयत मुनि महाराज के बनने वाले आहारक शरीर में
पहले आहारक मिश्र काययोग होगा
और अंतर्मुहूर्त बाद आहारक काययोग होगा
सातवाँ कार्मण काययोग केवल विग्रह गति में होता है
वचनयोग और मनोयोग के
सत्य
असत्य
उभय
और अनुभय के भेद से चार-चार भेद होते हैं
इस प्रकार योगों के कुल पंद्रह भेद होते हैं
और इनमें काय, वचन और मन तीनों की वर्गणाएँ और उनके भेदों का अंतर्भाव हो जाता है
यहाँ पर आस्रव को समझाने के लिए गुणस्थान गत भाव को न लेकर
मन, वचन और काय को लिया है
क्योंकि सूत्र दो ‘स आस्रवः’ के अनुसार, जो योग है वही आस्रव है
जैसे पानी अन्दर आने के लिए कोई नाली या द्वार होता है
और उस द्वार से पानी आता है
इसी प्रकार योग एक द्वार है
जिसके माध्यम से कर्मों का आस्रव होता है
अनेकांतवाद से योग और आस्रव में कथञ्चित भेद भी है और कथञ्चित अभेद भी
योग कारण है और आस्रव उसका कार्य
योग एक प्रणाली है और आस्रव उससे होने वाली प्रक्रिया
यही कथञ्चित इनका अंतर है
सूत्र के अनुसार योग और आस्रव एक ही हैं
क्योंकि उनमें समय भेद नहीं है
जब योग हो गया तब आस्रव हो गया
लेकिन कारण-कार्य सम्बन्ध के कारण अभेद भी कथञ्चित है
कथञ्चित भेद-अभेद के साथ ही हमें यह दोनों चीजें समझ में आ सकती हैं
हमने जाना कि कर्मों का आस्रव होता है और फिर बंध होता है
आठवें अध्याय के सूत्र एक ‘मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्ध-हेतवः’ के अनुसार
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बंध के कारण हैं
फिर इस सूत्र में सिर्फ योग को ही आस्रव क्यों कहा?
इस प्रश्न का समाधान मुनि श्री ने अपने चिन्तन से सूत्र की व्याख्या कर समझाया
अगर मिथ्यात्व से आस्रव होता तो वह पहले गुणस्थान तक रह जाता
अगर अविरति से आस्रव मानें तो वह भी चौथे गुणस्थान तक ही रहता
इसी प्रकार प्रमाद से आस्रव छठवें गुणस्थान तक ही रहता
कषाय से दसवें गुणस्थान तक क्योंकि उसके आगे कषाय नहीं होती
अगर हम क्षीण कषाय को भी मानलें तो बारहवें गुणस्थान तक ही होता
उसके बाद आस्रव नहीं होता
इसलिए ये चार भाव आस्रव के लिए नहीं है
आस्रव के लिए सिर्फ योग कारण है
कितनी प्रकृतियों का आस्रव कहाँ तक होगा? यह गणित हम गुणस्थान, उनमें विशुद्ध कर्म, छूटते कषाय आदि प्रत्यय से लगा सकते हैं
सयोग केवली मन, वचन, काय तीनों योग से सहित होते हैं
और वहाँ तक आस्रव चलता है
अयोग केवली होने पर आस्रव छूट जाता है
सिद्ध परमेष्ठी में भी आस्रव नहीं होता
पहले से तेरहवें गुणस्थान तक योग के साथ में आस्रव चलता है
बारहवें गुणस्थान तक यह क्षयोपशम भाव के साथ
और तेरहवें गुणस्थान में क्षायिक भाव के साथ होता है