श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 05
सूत्र - 01
सूत्र - 01
अणुव्रती बनना मतलब त्रस जीवों पर दया करना। इन्द्रिय असंयम। राग और द्वेष साथ-साथ चलते हैं। कर्म बंध से अपने आप को बचाना है। बंध के कारण जान कर ही हम कर्म से मुक्ति पाएंगे।
मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगाबन्ध-हेतव:॥8.1॥
01st, April 2024
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
इन्द्रिय असंयम के कितने प्रकार होते हैं?
4
5
6*
7
हमने जाना कि प्राणी संयम में अहिंसा का भाव ही प्रधान है
किसी भी तरीके की हिंसा की अनुमोदना कषाय में आती है
चाहे वो देशभक्ति के लिए ही हो
ऐसा नहीं कि देश प्रेम व्रतियों के लिए नहीं होता
लेकिन अपने सैनिक के मरने को गलत और दूसरे के मरने को सही ठहराने से
कषाय बढ़ाकर कर्म बंध करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता
कषाय की तीव्रता के कारण हमें सभी त्रस जीवों की हिंसा से विरक्ति का भाव भी नहीं आता
इसकी मंदता में कभी पशुओं के लिए, कभी पक्षियों के लिए दया भाव आ जाता है
हमने जाना कि कषाय की कमी करने के लिए
हमें हिंसा न करने का संकल्प लेना होगा
जैसे अणुव्रती के त्रस हिंसा नहीं करने का संकल्प होता है
जिनके अन्दर त्रस जीवों की रक्षा के भाव नहीं होते
उनके कभी स्थावर जीवों की रक्षा के भाव नहीं आ सकते
वे किसी अन्य उद्देश्य, नाम-ख्याति के लिए
जलकायिक जीवों को बचाना आदि योजनाएँ बना सकते हैं
लेकिन उनके भाव सिर्फ project पूरा करने के होते हैं
हमने जाना कि दया भाव से असंयम भाव में कमी आती है
छह प्रकार के इन्द्रिय असंयम में
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण - पाँच इन्द्रिय और मन का
किसी भी तरह के संयम का भाव नहीं होता
इस प्रकार बारह अविरति भावों में
छह प्राणी संयम बाहर की अपेक्षा
और छह इन्द्रिय संयम भीतर की अपेक्षा होते हैं
हमने जाना कि इन्द्रिय असंयम में राग की
और प्राणी असंयम में, इस राग से उत्पन्न, द्वेष की प्रधानता होती है
जहाँ राग है वहाॅं द्वेष भी है
इन्द्रियों के प्रति राग के कारण दूसरे के प्रति द्वेष होता है
और फिर प्राणी घात से भी फर्क नहीं पड़ता
जैसे दही-बड़े खाने के राग में, हमें द्विदल में हो रही जीव हिंसा से फर्क नहीं पड़ता
बच्चों को कुछ खाने की मना करने पर
उन्हें लगता है कि वे उसके बिना कैसे रहेंगे?
फिर चाहे उसमें माँस और खून के अवयव मिले हों
अतः जहाँ इन्द्रिय असंयम है, वहाँ प्राणी असंयम भी होता है
जब हम अन्दर का राग छोड़ पाते हैं
तभी हम कोई चीज छोड़ पाते हैं
और तभी उससे सम्बन्धित जीव हिंसा से बच पाते हैं
यही भीतर का मनोविज्ञान है
हमने जाना कि जब हम किसी वस्तु का सेवन नहीं करते
तो हमारे निमित्त से
उसमें जीव घात नहीं होगा
लोग अक्सर सोचते हैं कि
मेरे त्याग करने से तो हिंसा बंद नहीं होगी
slaughterhouse या leather के कारखाने बंद नहीं होंगे
ऐसी सोच कषाय की तीव्रता और अज्ञान के कारण होती है
हमें समझना है कि कर्म का बंध तो हमारे अन्दर हो रहा है
हमें उससे बचना है
यह तत्त्व का ज्ञान स्वहित के लिए होता है
संसार में बन्ध के हेतु हमेशा जीवों के अन्दर चल रहे हैं
लेकिन जो इनसे बचने की कोशिश करेगा, वही बचेगा
लोग बेवजह, त्याग करने के लिए दूसरों का साथ ढूँढते हैं ताकि
उन्हें ऐसा लगे कि वे गलत नहीं कर रहे
लेकिन जो बन्ध के कारणों को जानेगा
वह खुद ही पुरुषार्थ कर अविरति से दूर हट जाएगा
जिन गृहस्थों के त्रस हिंसा का त्याग है
लेकिन स्थावर हिंसा का नहीं है
उन्हें अप्रयोजनीय हिंसा का त्याग करना चाहिए
जिससे स्थावर जीवों के प्रति भी दया भाव आये
अविरति का त्याग होने पर
भीतर से कर्म बंध का एक बहुत बड़ा कारण रुक जाता है
बंध के पाँच हेतुओं को हम पाँच बड़े-बड़े दरवाजे समझ सकते हैं
जिनसे कर्म बन्ध होता है
अपनी सुरक्षा के लिए हमें एक-एक करके दरवाजे बंद करने होंगे