श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 02
सूत्र - 01
सूत्र - 01
आस्त्रव, बन्ध, संवर का practical। सिद्धान्त और अध्यात्म में अन्तर। देह और आत्मा अलग होने का अभ्यास कैसे करें। जिसने कष्ट में अभ्यास कर लिया वह पार हो गया। स्तुति के योग्य पुरुषार्थ। पुरुषार्थ ही यहाँ हमें संवर करना सिखा रहा है।
आस्रव निरोधः संवर:॥9.01॥
27, Sept 2024
Pankaj Jain
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दूसरे गुणस्थान में कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध रुकता है?
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संवर तत्त्व के प्रकरण में हमने जाना-
तत्त्व-श्रद्धान जीव और अजीव के difference से शुरू होता है।
हमें जीव-अजीव से शुरू कर मोक्ष आदि तक पहुँचाना है।
हमें बस इतना समझकर practical करना है कि
“मैं ज्ञानवान, चैतन्य जीवात्मा हूँ”
निरंतर इस difference को बढ़ाना है-
मैं जीव हूँ और शरीर अजीव।
यह मुझसे भिन्न है,
मेरे साथ जरूर है पर मेरा नहीं है,
इस मेरे पन का भाव छूटने पर
जीव-अजीव का श्रद्धान आता है,
जिससे मिथ्यात्व का संवर होगा
और गुणस्थानों के माध्यम से हमारी progress शुरू हो जाएगी।
मोह और मिथ्यात्व के संवर से ही सम्यग्दर्शन होता है।
नौवे अध्याय में मुख्यतया तो मुनियों की चर्चा है
हमारे लिए तो इसमें “देह से आत्म-बुद्धि हटाना” - यही practical है।
मुनि श्री ने समझाया कि
देह से आत्म-बुद्धि हटने का पता हमें तब लगेगा-
जब कभी हमारी देह में कष्ट हो,
रोग हों,
अनेक तरीके की पीड़ाएँ हों,
तब हम देह के स्वभाव को समझें,
अपना ज्ञान, आत्मा में लगाकर,
पीड़ा से परेशान न हों।
उसे कर्म-फल की वेदना समझते हुए,
उससे विरक्त हों।
उसे अपनी नहीं, मात्र शरीर की ही पीड़ा समझकर
अपने शान्त स्वभाव में ही रहें।
यदि हमें कुछ पीड़ा नहीं है तो
हम सुखपूर्वक जीव और देह का श्रद्धान करें।
सुख में अभ्यास करने पर ही
हम कष्ट में भेद-विज्ञान कर पाएँगे।
यदि सुख में अभ्यास नहीं है तो दुःख में तो वैसे ही मन नहीं बनता।
सुख में आलस,
और दुःख में मन न बनने से हम दोनों तरह से जाएँगे।
सुखपूर्वक संवर के लिए हम
अधिक-से-अधिक ध्यानात्मक,
देह-जीव भेद-विज्ञानात्मक वृत्ति का अभ्यास करें,
“मैं शरीर में रह रहा हूँ लेकिन मैं शरीर नहीं हूँ।”
यही जागृति अन्तर्मुखी अभ्यास कहलाती है,
और हमारे उपयोग को अन्तर्मुखी बनाती है।
धीरे-धीरे यह अभ्यास करते हुए,
हमारा कष्ट सहने का भी मन बन जाएगा।
दुःख में यदि हमने यह अभ्यास कर लिया
तो हम पार हो जाएँगे।
क्योंकि सुखपूर्वक अभ्यास की अपेक्षा,
दुःख में किये गए अभ्यास का संस्कार ज्यादा रहता है।
आचार्य पूज्यपाद महाराज ने कहा है-
बिना दुःख के किया गया ज्ञानभाव, दुःख आने पर छूट जाता है,
पर, दुःख में भावित ज्ञान हमेशा रहता है।
हम सुखपूर्वक रहना चाहते हैं,
सुख से संवर, निर्जरा,
सुख से मरण, और
सुख से ही मोक्ष चाहते हैं।
किन्तु दुःख जीतने पर ही आगे सुख मिलता है।
दुःख में किया गया आत्म-भाव,
दृढ संस्कार बनकर
आगे सुख पूर्वक संवर कराने में काम आता है।
अध्यात्म-निष्ठ व्यक्ति दुःख में घबराए बिना
मिथ्यात्व का संवर करके, निरोध करके,
सम्यग्दर्शन के भाव में रहता है।
बहिर्मुखी-वृत्ति को छोड़ अन्तर्मुखी-वृत्ति में आना,
अपनी आत्मा को ही अपना मानकर,
शरीर की पीड़ाओं को अपने से भिन्न समझकर,
शरीर में ममत्व बुद्धि छोड़ना,
संवर की पहली सीढ़ी है।
अनादि काल से हम यही नहीं चढ़ पाएं हैं।
हमेंं इसी का पुरुषार्थ करना है,
आगे हम अपने-आप चढ़ते चले जाएँगे।
अपनी आत्मा को ही अपनी चैतन्य आत्मा मानकर
शरीर की पीड़ाओं, रोगों को अपने से भिन्न समझकर,
शरीर में ममत्व बुद्धि,
आत्म बुद्धि छोड़ने का पुरुषार्थ ही स्तुत्य होता है।
हमने जाना -
अलग-अलग कर्मों के बन्ध, अलग-अलग गुणस्थानों में रुकते जाते हैं।
मिथ्यात्व के संवर से 16 और
दूसरे गुणस्थान में 25 प्रकृतियों का बन्ध रुकता है।
मिथ्यात्व से लेकर चारित्रमोहनीय की सभी प्रकृतियों
और योगों का संवर होने पर जीव को मोक्ष मिलता है।
उसका first step बहिरात्मा से अन्तरात्मा बनना है,
जो किसी भी उम्र में हो सकता है।
इसलिए हमें सबसे पहले मिथ्यात्व को रोककर सम्यग्दृष्टि बनना है।