श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 08
सूत्र - 06
सूत्र - 06
पहला कारण - पूर्व प्रयोगात् । पूर्व संस्कार के अनुसार काम होता है । सुगति गमन की भावना करने से ध्यान में स्थिरता आती है । पूर्व प्रयोग के कतिपय उदाहरण। दूसरा कारण- निस्संग होना । तीसरा कारण - बंध का विच्छेद होना
पूर्व-प्रयोगा-दसंङ्गत्वाद्-बन्धच्-छेदात्तथा-गति-परिणामाच्च॥10.6॥
01, May 2025
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
बिजली चले जाने के बाद भी पंखे का एकदम से बंद नहीं होना और पंखुड़ियों का घूमते रहना निम्न में से किसका उदाहरण है?
असंग
बन्ध का विच्छेद
पूर्व प्रयोग *
तथागति परिणाम`
सूत्र पाँच में हमने जाना था कि कर्मों के क्षय होने पर जीव ऊर्ध्व गमन करता है
और सिद्ध शिला पर जाकर स्थित हो जाता है।
सूत्र छह पूर्व-प्रयोगा-दसंङ्गत्वाद्-बन्धच्-छेदात्तथा-गति-परिणामाच्च में हमने
ऊर्ध्व गमन के कारणों में पहला कारण जाना पूर्व-प्रयोगात्।
वह पूर्व में ऊर्ध्व गमन का प्रयोग करता रहा है।
लोक के अग्र भाग पर स्थित सिद्ध भगवान का ध्यान करता रहा है।
सर्वार्थसिद्धि से बारह योजन ऊपर सिद्धशिला सात राजू
और पूर्व-पश्चिम में एक राजू फैली हुई है।
लेकिन वह बाहुल्य में केवल 45 लाख योजन प्रमाण
और मध्य में आठ योजन की बहुलता को लिए हुए,
बिल्कुल धवल उत्तान यानि ऊपर की ओर मुख किए हुए छत्र के समान है
जिसके ऊपर अनन्त सिद्ध भगवान की आत्माएँ हैं।
जीव अपना उपयोग बार-बार वहाँ लेकर गया है
सिद्ध भगवान के ध्यान के बिना कभी भी केवलज्ञान नहीं हो सकता।
पहले कई पर्यायों में किया गया निर्विकल्प धर्म-ध्यान, रूपातीत ध्यान ही उसका पूर्व का प्रयोग है।
हमारी परिणति वैसी होती है जैसा हम ध्यान करते हैं-
पूर्व में सिद्ध भगवान में अपना उपयोग लगाते हुए,
उन्हीं के आनन्द में अपने को आनन्दित मानते हुए
आत्मा में संस्कार पड़ते हैं जो कार्य पूर्ण होने पर काम आएँगे,
उन्हीं के अनुसार काम होगा।
पूर्व प्रयोग मतलब पहले के experiments, efforts
जैसे जो doctor बनना चाहता है
वह अपने अन्दर feeling ले आता है
मैं doctor बनकर ऐसे कपड़े पहनूँगा, ऐसे बैठूँगा, ऐसा काम होगा।
ऐसे ही, ध्यान करने वाला अरिहन्तों और सिद्धों को ध्याता है।
भगवान के दर्शन करते हुए, जिनवाणी पढ़ने से पहले और बाद में
बार-बार यह भावना करना कि मेरे दुःखों का क्षय हो,
सुगति यानि पंचम गति में गमन हो, समाधिमरण हो
यह भी पूर्व प्रयोग है।
यह ध्यान में स्थिरता लाएगा, और हमें शुक्ल ध्यान में ले जाएगा।
इसी प्रयोग से पड़े हुए संस्कार के कारण आत्मा
शरीर छोड़ने पर ऊपर सुगति में ही जाएगी।
पूर्व प्रयोग व्यवहारिक जीवन में भी काम आता है
जैसे light जाने पर पंखा तुरंत बन्द नहीं होता
उसकी पंखुड़ियाँ घूमती रहती हैं।
या मन्दिर में घण्टा बजने के बाद भी देर तक आवाज आती रहती है।
कुछ सीखना हो तो भी पूर्व प्रयोग करना होता है
जैसे चित्र बनाना है तो उससे पहले outlining करनी होती है।
यह पूर्व प्रयोग का ही फल होता है।
दूसरे कारण असंगत्वात् में हमने जाना
साथ में जुड़ा हुआ सब संग कहलाता है।
चाहे वह भावों से जुड़ा हुआ हो, चाहे कर्मों से या चाहे किसी पदार्थ से।
जब तक आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव को छोड़कर अन्य किसी पदार्थ के साथ संगति रखता है
तब तक उसका ऊर्ध्व गमन निश्चित नहीं होता।
संग रहित होना यानि दूसरे पदार्थ का उससे attachment नहीं रहना
ऐसा होने पर ऊपर जाने की नियामकता है।
हल्की वस्तु ऊपर ही उठती है, भारी वस्तु नीचे जाती है।
संग यानी संगति, साथ।
इसकी अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह रूप व्याख्याएँ तो बाद में आती हैं।
आत्म द्रव्य के अपने गुण, उसका अपना स्वभाव, अपनी शक्तियाँ ही उसके साथ है।
इसके अलावा सब कुछ पर है
परसंगति को छोड़ने से वह असंग हो जाता है
और ऊर्ध्व की ओर ही गमन करता है।
तीसरा कारण बंधच्छेदात् का अर्थ है
बंधों का विच्छेद हो जाना।
अधो दिशा, तिरछी दिशा आदि में जाना किसी बन्धन के कारण ही होता है।
सभी बंधनों से मुक्ति मिलने पर पदार्थ स्वभाव से ऊपर की ओर ही जाता है।