श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 31
सूत्र - 20
सूत्र - 20
प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरं॥9.20॥
21, nov 2024
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निम्न में से किसको परम तप कहा गया है?
प्रायश्चित्त
स्वाध्याय *
विनय
ध्यान
चौथे नम्बर का अंतरंग तप स्वाध्याय होता है।
अगर प्रायश्चित, विनय और वैयावृत्ति से हमारा ह्रदय स्वच्छ है
तो हम स्वाध्याय न भी कर पाएं तो भी चलेगा।
क्योंकि इन भावों में रहने से हमारा स्वाध्याय चलता रहता है।
और अगर स्वाध्याय भी हो जाता है
तो गुणवत्ता और बढ़ जाएगी।
पर इन भावों के बिना वह निष्फल रहता है।
हमें सब पता होते हुए भी,
हम इन बातों को महत्व नहीं देते
और बस ज्ञान के पीछे भागते हैं।
हमने जाना कि यदि पढ़े-लिखे लोग उन लोगों का निरादर करें
जिन्हें ज्ञान अधिक नहीं होता
पर चौका आदि सेवा करके साधुओं की वैयावृत्ति करते हैं,
तो उनका यह अहं लाने वाला स्वाध्याय भी काम का नहीं रहता।
विनय आदि गुणों के साथ किया गया स्वाध्याय परम तप होता है।
स्वाध्याय के समय
आँखें और कान भगवान की वाणी देखने और सुनने में लगने से
इन्द्रियाँ और मन-वचन-काय नियंत्रित रहते हैं,
मन एकाग्र होने से
दुर्ध्यान और दुश्चिन्तन नहीं होता।
यह विशेष रूप से साधु के लिए
और सामान्य रूप से श्रावक के लिए भी
संवर और निर्जरा का कारण बनता है।
अपने दोष दूर करने के लिए ज्ञान लेना, स्वाध्याय होता है।
यदि बिना पढ़े भी हम अपने दोष समझ पाते हैं
तो हम ज्ञानी हैं।
और यदि स्वाध्याय के बाद भी हमें अपने दोष नहीं दिखते,
किस ग्रन्थ में क्या लिखा है यह तो पता है,
तीन लोक का, करुणानुयोग का तो ज्ञान है,
पर अपने मन-वचन-काय की प्रवृत्ति नहीं पता,
अपने पाप-पुण्य नहीं पता,
अपने दोष कैसे दूर करना- यह नहीं पता
तो वह ज्ञान निरर्थक और बोझ-मात्र होता है।
स्वाध्याय का प्रयोजन अपने दोषों का निराकरण होना चाहिए
इससे देव-शास्त्र-गुरु की विनय बढ़नी चाहिए।
उन पर आई आपत्ति को मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से दूर करने का भाव होना चाहिए।
ऐसा स्वाध्याय ही परम तप कहलाता है।
ज्ञान को प्रमाण कहते हैं
स्वाध्याय से हमें हेय-उपादेय का ज्ञान होता है।
यानि यह निश्चय कर लेना कि यह ज्ञान है
और यह ज्ञान की विषयभूत वस्तु।
न्याय-शास्त्रों में प्रमाण का फल
हान, उपादान और उपेक्षा बताया गया है।
अर्थात् क्या त्याग करना,
क्या ग्रहण करना,
और किसमें माध्यस्थ रहना।
सिर्फ अज्ञान दूर होना पर्याप्त नहीं होता,
ये फल आने से ही स्वाध्याय अच्छा होता है।
हमारे अन्दर इसी स्वाध्याय में आलस्य से रहितपना बना रहना चाहिए।
जिन अन्तरंग और बहिरंग चीज़ों से हमें ममत्व होता है,
उनका त्याग करना व्युत्सर्ग नामक पाँचवा तप होता है।
यह कायोत्सर्ग के साथ किया जाता है।
जब काया का उत्सर्ग किया जाता है,
उतनी देर- न शरीर का ध्यान होता है,
न संसार की किसी चीज का चिन्तन आता है।
मन केवल अपने आत्मचिन्तन में,
अथवा परमात्म भाव में,
परमार्थ के भाव में लगता है।
इससे बाह्य और अन्तरंग परिग्रह छूट जाते हैं।
अन्तिम तप ध्यान में
मन एक ही चीज में,
एक ही ध्येय में लीन हो जाता है।
जब मन प्रायश्चित से शुद्ध और विनय से नम्र हुआ हो,
जिसमें वैयावृत्ति से दूसरों के गुणों के प्रति आदर पैदा हुआ हो,
जिसे स्वाध्याय से गुण-अवगुणों का ज्ञान हो गया हो और
व्युत्सर्ग से जिसने सब प्रकार के संघ का, परिग्रह का, ममता का त्याग कर दिया हो
तब उसकी बस एक ही प्रवृत्ति रहती है- अपने में रहना।
यही ध्यान कहलाता है।
इस एकाग्रता से कर्म निर्जरा बहुत जल्दी होती है,
क्षण भर में ही अनेक जन्मों के संचित कर्म नष्ट होते हैं।
इसलिए यह सर्वश्रेष्ठ तप होता है।
और बाह्य तपों में सर्वश्रेष्ठ कायक्लेश तप होता है।
अन्तरंग तप के भेद-प्रभेदों का वर्णन हम आगे पढेंगे।