श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 32
सूत्र - 35,36
Description
सचित्त से क्यों बचना चाहिए? शरीर विज्ञान की धर्म ध्यान जरूरत। थोड़ी सी हिंसा और महान अहिंसा। अभिषव और दुःपक्वाहार। दुपक्वाहार। सचित्त निक्षेप का उदाहरण।
Sutra
सचित्तसम्बन्ध-सम्मिश्राभिषव-दुःपक्वाहाराः।।7.35।।
सचित्त-निक्षेपा-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमः।।7.36।।
Watch Class 32
WINNERS Day 32
29th, Jan 2024
Preeti Jain
Delhi
WINNER-1
Sushila Jain
Bengaluru
WINNER-2
Sandhya Jain
Datia
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
निम्न में से पाप के लिए कौन सा शब्द प्रयुक्त होता है?
सावद्य*
अभिषव
बहु
राशि
Abhyas (Practice Paper):
Summary
हमने जाना कि जहाँ सचित्त सम्बन्ध में चीजें अलग-अलग होती हैं
और हम मिला-मिला कर लेते हैं
सचित्त संमिश्रण में वे मिल जाती हैं
स्वाध्याय, सामायिक, धर्म-ध्यान आदि करने के लिए भी
शरीर का साथ देना बहुत ज़रूरी है
चूँकि सचित्त सेवन से वात या वायु आदि दोष प्रकट होते हैं
इसलिए शारीरिक दृष्टिकोण से भी आचार्यों ने इससे बचने के लिए कहा है
वायु एक medium है
जो दर्द को, कफ-पित्त आदि को शरीर के अलग-अलग स्थान में ले जाती है
इससे जहाँ दर्द नहीं भी होता है, वहाँ आ जाता है
खासतौर से शीतकाल में शरीर में रुक्षता बढ़ने से वायु और उसके दर्द बढ़ जाते हैं
इसलिए रुक्ष, गरम मूँगफली आदि खाने से वायु, gas बढ़ती है
हमने जाना कि अचित्त फल के सेवन से वायु आदि विकारों का शमन होता है
और सचित्त अपच, अजीर्ण आदि पेट सम्बन्धी रोग बढ़ते हैं
इसलिए जिन्हें वायु का प्रकोप रखता है वे प्रासुक चीजें ही लें
मुनि श्री ने समझाया कि प्रासुक करने का अर्थ जीवों को मारना नहीं है
ये गलत logic हैं
हम त्रस जीवों को प्रासुक नहीं करते
केवल एकेन्द्रिय जीवों को करते हैं
अगर एकेंद्रिय जीव बहुत देर तक वस्तु में रहते हैं
तो उन चीजों में त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है
चाहे वह बाहर रखा भोजन हो या पेट में गया हुआ
इसलिए सावद्य लेशो बहु पुण्य राशो के सिद्धांत से प्रासुक का नियम बताया जाता है
अर्थात थोड़े पाप से बहुत पुण्य की राशि मिलती है
एक इन्द्रिय जीव की थोड़ी सी हिंसा से,
हम आगे होनी वाली महान त्रस हिंसा से बच जाते हैं
अधिक पुण्य करने के लिए थोड़ा सा पाप करना पड़ जाता है
जैसे पूजा का अधिक पुण्य लेने के लिए
जल आदि के माध्यम से सामिग्री तैयार करने में हिंसा करनी पड़ती है
चौथे अभिषव अतिचार में हम बहुत ज्यादा गरिष्ठ द्रव और वृश्य आहार करते हैं
इनमें धीरे-धीरे बलिष्ठता भी आ जाती है
द्रव में हम चीजों को गरिष्ठ और बलिष्ठ बनाते हैं
जैसे चावल आदि को चार प्रहर यानि बारह घंटे तक पानी में गलाना
या आचार बनाने के लिए बहुत दिनों तक उसे लगाकर छोड़ना
इससे उनमें बहुत जीवों की उत्पत्ति होती है
और एक अभिषवपना आने लग जाता है
वृश्य में गरिष्ठ तरीके से बनी हुई चीजें आती हैं
जैसे दूध से मलाई और रबड़ी बनाना
ऐसे भोजन भी शरीर के लिए हानिकारक और अनेक रोगों का कारण होते हैं
और इंद्रियों की राग प्रणाली को बढ़ाते हैं
इसलिए त्याज्य हैं
अंतिम दुपक्वाहार दोष में आहार दुपक्व यानि दुष्ट रूप से पक्व बनाये गए होते हैं
जैसे जरूरत से ज्यादा या बहुत कम तले या पके होते हैं
बार-बार उबाल कर, मिर्ची, नमक आदि डालकर जायकेदार बनाये जाते हैं
गरिष्ठ किये जाते हैं
ये सभी आहार tasty लगते हैं
पर नुकसानदेह होते हैं
हर tasty चीज हितकारी हो ऐसा जरूरी नहीं है
सूत्र छत्तीस सचित्त-निक्षेपा-पिधान-परव्यपदेश-मात्सर्य-कालातिक्रमः में हमने जाना कि
सचित्त निक्षेप
सचित्त अपिधान
परव्यपदेश
मात्सर्य
और काल का अतिक्रमण
ये अंतिम अतिथि संविभाग व्रत के पाँच अतिचार हैं
पहले सचित्त निक्षेप दोष में हम सचित्त पर अचित्त वस्तु का निक्षेप कर देते हैं, रख देते हैं
हड़बड़ाहट में ध्यान नहीं रहता कि कौन सा सचित्त था और कौन सा अचित्त
या एक ही बर्तन से गरम और ठंडा पानी निकाल लिया
या ठंडा करने के लिए गरम-ठंडा मिला दिया आदि
पहले लोग पत्ते के बने पत्तल पर पंगत में भोजन करते थे
उसमें भी यदि कोई पत्ता हरित है
और उसपर हमने कुछ अचित्त चीज रख दी
तो यह भी सचित्त निक्षेप दोष में आएगा