श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 32
सूत्र - 21,22
सूत्र - 21,22
नव-चतुर्दश-पञ्च-द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात्॥9.21॥
आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोप-स्थापनाः॥9.22॥
22, nov 2024
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प्रायश्चित्त तप कितने प्रकार का होता है?
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सूत्र इक्कीस नव-चतुर्दश-पञ्च-द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् में हमने अन्तरंग तप के प्रभेद जाने।
‘प्राग्ध्यानात्’ यानि सूत्र बीस में ध्यान से पहले के तप
प्रायश्चित के नौ,
विनय के चार,
वैय्यावृत्ति के दस,
स्वाध्याय के पाँच,
और व्युत्सर्ग के दो भेद होते हैं।
ध्यान का वर्णन अलग से आएगा।
सूत्र 22 आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोप-स्थापनाः में हमने प्रायश्चित के नौ प्रकार जाने
आलोचना,
प्रतिक्रमण,
तदुभय,
विवेक,
व्युत्सर्ग,
तप,
छेद,
परिहार और
उपस्थापना।
आलोचना में
‘आ’ मतलब पूर्ण रूप से
‘लोचन’ अर्थात् देखना
यानि पूर्ण रूप से अपनी निगरानी रखना,
अपने को देखना कि
हम क्या-क्या गलत कर रहे हैं।
कुछ गलतियाॅं हमारे प्रमाद से,
और कुछ knowledge नहीं होने से होती हैं।
कुछ गलतियाॅं knowledge होते हुए भी
कर्म के भार से हो जाती हैं,
क्योंकि knowledge से हर प्रवृत्ति नहीं रुकती।
अगर knowledge से ही गलतियाॅं रुक जातीं
तो सम्यग्ज्ञान ही पर्याप्त हो जाता,
सम्यग्चारित्र की जरूरत नहीं पड़ती।
पर knowledge और conduct अलग-अलग होते है।
चारित्रमोहनीय कर्म के तीव्र उदय में
जानते हुए भी हम गलत करते हैं।
आलोचना में self-observation करके
गुरु के सामने confession,
यानि दोषों का निवेदन किया जाता है।
आलोचना दस दोषों से रहित होनी चाहिए।
दोष बताते हुए छल-कपट नहीं करना चाहिए
जब गुरु दूसरी चर्चा में लिप्त हों,
या संघ के या श्रावकों के शब्द हो रहे हों,
तब यह सोचकर कि हमारा निवेदन भी हो जाएगा
और गुरू अच्छे से दोष सुन भी नहीं पाएँगे,
और हमें भारी प्रायश्चित नहीं मिलेगा,
उस समय निवेदन करना
शब्दाकुलित दोष होता है।
अपने बड़े-बड़े दोष बता देना, पर छोटे दोष नहीं बताना-
बादर दोष होता है।
और छोटी-छोटी बातें तो बताना, पर बड़े पाप नहीं बताना-
सूक्ष्म दोष होता है।
हमें गुरू से समय लेकर
उनसे आज्ञा लेकर
जब गुरु अच्छे mood में,
स्वस्थ भाव में बैठे हो,
अन्य कार्य में व्यस्त नहीं हों,
तब आलोचना करनी चाहिए।
यदि व्यस्तता के कारण बार-बार लौटना भी पड़े
तो भी बिना बहाना बनाये, बिना गुस्सा किये
दोष बताने ही चाहियें।
आलोचना खुले स्थान पर होनी चाहिए,
अंधेरे में, रात में और अकेले में
प्रायश्चित आदि नहीं दिए जाते हैं।
संघ में स्त्रियाॅं किसी एक आर्यिका के साथ जाती हैं।
इन मर्यादाओं में रहकर ही,
प्रायश्चित परिपूर्ण पलता है।
हमने जाना कि गुरू- माला, उपवास या अन्य कुछ प्रायश्चित दें,
तब ही प्रायश्चित हो, जरुरी नहीं!
केवल अपने दोषों का निवेदन करना भी प्रायश्चित होता है।
उसके बाद गुरू जो कहें वह मान लेना चाहिए।
जिस समय जो करने योग्य है,
वह करना प्रायश्चित कहलाता है।
प्रायश्चित, विशेषत: आचार्य परमेष्ठी देते हैं।
पूर्व में किए दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण कहलाता है
उसके लिए ‘मेरा दोष मिथ्या हो’-
यह भाव किया जाता है।
साधक सुबह-शाम प्रतिक्रमण करते हैं।
जब यह प्रायश्चित में मिलता है,
तब इसे एक बार और extra करना होता है।
मुनियों और व्रती श्रावकों की विधि के समान ही
मुनि श्री ने सामान्य श्रावक, पाक्षिक श्रावक
जो व्रती नहीं हैं,
पर भगवान का पक्ष रखते हैं
उनके लिए दार्शनिक प्रतिक्रमण बनाया है।
इसमें आलोचना सिद्ध भक्ति,
प्रतिक्रमण भक्ति,
अरिहन्त भगवान और उनकी निषिद्धिकाओं का स्मरण करके
प्रतिक्रमण होता है-
जिसमें अष्ट मूलगुणों का पालन और सप्त व्यसनों का त्याग
इन पन्द्रह व्रतों के पन्द्रह दण्डक यानि paragraphs से
प्रतिक्रमण किया जाता है।
उसके बाद वीर भक्ति,
चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति,
और अन्त में समाधि भक्ति होती है।
इस प्रकार एक प्रतिक्रमण में पाँच भक्तियों के कायोत्सर्ग होते हैं।
दोष मुक्ति कहीं केवल आलोचना से
और कहीं प्रतिक्रमण से ही हो जाती है।
तदुभय नामक तीसरे प्रायश्चित में दोनों करने होते हैं।