श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 35
सूत्र - 23
सूत्र - 23
विनय के भेद। ज्ञान विनय। ज्ञान और ज्ञानी अलग-अलग नहीं है। शास्त्र पढ़ते हुए कैसे विनय करें? दर्शन विनय।
ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः॥9.23॥
16, dec 2024
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निम्न में से कौनसा विनय का एक भेद नहीं है?
संग विनय*
ज्ञान विनय
चारित्र विनय
उपचार विनय
सूत्र तेईस ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः में हमने जाना-
अन्तरंग तप विनय के चार भेद होते हैं
ज्ञान-विनय,
दर्शन-विनय,
चारित्र-विनय और
उपचार-विनय।
यहाँ किसी व्यक्ति का नाम न लेकर
गुणों की विनय कही गई है,
जो जैन दर्शन की विशेषता है।
पहले तीन- ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा के गुण हैं,
इनकी विनय करना निश्चय विनय होती है।
चौथी उपचार विनय- व्यवहार से होती है।
ये गुण उन आत्माओं में मिलते हैं,
जिन्होंने, इन्हें अपने अन्दर आराधना के रूप में रखा हो,
इनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया हो
और इन्हें प्रकट किया हो।
विनय वही कर सकता है-
जिसका मन सरल हो,
मृदु हो,
जो गुणी हो और गुण ही पाना चाहता हो।
इसलिए बाहर से दिखते हुए भी विनय,
वैयावृत्ति की तरह अन्तरंग तप होता है।
सामान्य से ज्ञान गुण एकेंद्रिय से पंचेन्द्रिय तक हर आत्मा में होता है-
किन्तु सम्यग्ज्ञान सभी में नहीं होता।
विनय सम्यग्ज्ञान से प्रारम्भ होती है
और चारित्र के साथ बढ़ती जाती है।
चारित्र की वृद्धि के साथ
ज्ञान, अधिक मान्य और पूज्य बनता है।
Quality, qualitative person में मिलती है।
जैसे धर्म, किसी स्थान-विशेष पर नहीं मिलता
धर्मात्मा में मिलता है।
वैसे ही गुण, गुणीजनों में रहते हैं
बाहर कहीं नहीं मिलते।
गुणीजनों की आराधना से ही गुणों की आराधना होती है।
यानि ज्ञान विनय और ज्ञानी विनय - दोनों एक ही हैं,
ऐसे ही दर्शन विनय और सम्यग्दृष्टि विनय,
चारित्र विनय और सम्यग्चारित्रधारी की विनय, एक हैं।
विनयपूर्वक ज्ञानार्जन करना ज्ञानगुण की विनय होती है।
स्वाध्याय रूप में
तत्त्वार्थ सूत्र या अन्य सिद्धान्त वचनों को
पढ़ते या सुनते हुए
हमें अन्य कामों में नहीं लगना चाहिए।
ग्रन्थ पढ़ते हुए बीच में कुछ काम करने चले जाने से
ज्ञान की और शास्त्र की अविनय होती है।
हमें उसे अच्छे से बन्द करके,
नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर
और यदि जल्दी हो तो नौ बार ‘ओं अर्हं नमः’ पढ़कर ही उठना चाहिए।
online सुनते हुए कोई काम आ जाने पर
device बन्द करके,
मन में नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर जाना चाहिए ।
ज्ञान की विनय में-
जिसमें ज्ञान है उस आत्मा की विनय,
उस आत्मा के निवास-स्थान शरीर की विनय,
और वह शरीर जहाँ से ज्ञान ले रहा है,
उन शास्त्रों की भी विनय आती है।
हमें कु-आग्रह नहीं करना चाहिए
कि शास्त्रों के अन्दर तो ज्ञान गुण नहीं है तो विनय कैसी!
क्योंकि शास्त्रों से ही हमें ज्ञान मिलता है।
और व्यवहार पालने से हम ज्ञान की विनय कर पाएँगे।
हमें हाथ-पैर शुद्ध करके,
मुख-शुद्धि करके,
नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर
एकाग्रता से स्वाध्याय करना चाहिए।
चाहे थोड़ा करें या अधिक समय।
शास्त्रों को हमेशा नाभि स्थान से ऊपर रखना चाहिए
पैरों पर और जमीन पर नहीं रखना चाहिए।
हमें यह विनय का भाव हमेशा रखना चाहिए।
यह विनय भी हमें शास्त्र और गुरू सिखाते हैं।
दूसरी दर्शन विनय में-
दर्शन यानि सम्यग्दर्शन,
और जिनके अन्दर समीचीन श्रद्धान हुआ है,
उनके प्रति विनय का भाव आता है,
क्योंकि सम्यग्दर्शन बहुमूल्य होता है।
सम्यग्दृष्टि का संसार चुल्लू भर रह जाता है-
यानि अनन्त संसार बस एक मुट्ठी के बराबर रह जाता है।
जिसमें सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्चारित्र भी हो
उसके प्रति विनय और अधिक हो जाती है।
इस तरह विनय भाव बढ़ता जाता है।
अपने आत्म-गुण की भावना करने से उसकी विनय होती है।
जैसे-
सम्यग्दर्शन क्या होता है?
इसके कितने अंग होते हैं?
हमारे अन्दर ये अंग हैं या नहीं?
इन अंगों में कौन प्रसिद्ध हुआ है?
सम्यग्दर्शन के क्या अतिचार होते हैं?
इसके 25 दोषों में क्या-क्या आता है?
ऐसा विचार करने से सम्यग्दर्शन की विनय होती है।