श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 22
सूत्र - 8
Description
अनात्मभूत-बाह्य-कारणों पर आधारित उपयोग की प्रवृत्ति बदलती रहती है l इन्द्रियाँ आत्मभूत-बाह्य-लक्षण है l ज्ञानावरण आदि का क्षयोपशम अन्तरंग आत्मभूत हेतु होता है l पुद्गल वर्गणाओं का आलम्बन ही अनात्मभूत-अन्तरंग-हेतु है l उपयोग हमेशा अपने चैतन्य के परिणाम के साथ चला करता है l अन्तरंग का क्षयोपशम और बाह्य कारणों के अनुसार भी उपयोग की प्रवृत्ति होगी l उपयोग के भेद कर्म क्षयोपशम पर आधारित है l
Sutra
उपयोगो लक्षणं।l८ll
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WINNERS
Day 22
13th May, 2022
Aditi Kedia
Raipur
WIINNER- 1
Richa Jain
Muzaffarnagar
WINNER-2
Nitin Jain
Faridabad
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
निम्न में से अनात्मभूत अन्तरंग हेतु कौनसा है?
मन की वर्गणा *
ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम
दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम
वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम
Abhyas (Practice Paper):
Summary
जीवों के लिए बाह्य और अन्तरंग दोनों ही हेतु आत्मभूत और अनात्मभूत होते हैं
इन्हीं बाह्य और अन्तरग कारणों के अनुसार ही उपयोग की प्रवृत्ति होती है
जीव की इन्द्रिय उसका बाह्य आत्मभूत लक्षण हैं क्योंकि वह जहाँ-जहाँ रहेगा, इन इन्द्रियों को लेकर के चलेगा
और जो उसने अलग कपड़े, चश्मा, टोपी आदि पहने हैं, वे उसका बाह्य अनात्मभूत लक्षण हो गए
वे उसकी आत्मा के साथ हमेशा रहने वाला नहीं हैं
इसी तरह जो भी चीजें इन्द्रियों के लिए सहायक होंगी, जैसे चक्षु के लिए प्रकाश या सुनने के लिए mic, वे भी अनात्मभूत बाह्य लक्षण हैं
बाह्य अनात्मभूत कारणों को भी हटाने से उपयोग में अन्तर आ जाता है
जैसे अंधकार हो जाने पर जानने-देखने की प्रक्रिया बंद ही हो जाती है
चमगादड़, उल्लू आदि का उपयोग अंधकार में ही काम करता है
इन्द्रियों की हीनाधिकता होने पर, उपयोग की परिणति भी कमती-बढ़ती हो जाती है
जैसे असंज्ञी जीव सुनेगा सब, मगर मन के आभाव में समझेगा नहीं
वहीं चार इन्द्रिय जीव सुन ही नहीं सकेगा
हमने जाना कि अन्तरंग आत्मभूत हेतु में हमारे अन्दर ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षयोपशम होता है
जीव इनके कारण ही बाह्य हेतुओं के सानिध्य से अपना कोई व्यापार कर पाता है
बिना ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के जीव इन्द्रियाँ होने पर भी नहीं जान पायेगा
अन्तरंग अनात्मभूत हेतु में मन-वचन-काय की पुद्गल वर्गणाओं आती हैं
ये आत्मा का स्वभाव नहीं है
लेकिन आत्मा इसी से अपना काम कर रही है
हमने जाना किसी चीज को जानने, देखने के लिए अन्तरंग और बाह्य दोनों हेतुयों का सन्निधान होना चाहिए
उपयोग हमेशा अपने चैतन्य के परिणाम के साथ चलता है
जैसे सोने से हम कुण्डल, हार आदि बनाकर उसको उस रूप ढाल लेते हैं
उसी प्रकार इन्द्रियाँ, ज्ञान का क्षयोपशम आदि के अनुसार हमारी चेतना भीउस रूप ढल जाती है
चेतना का परिणाम कहीं पर किसी भी जीव में नहीं छूटता
इसे उपयोग-स्वभाव वाला जीव कहते हैं
हमने देखा कि ज्ञान के क्षयोपशम अनुसार ही लोगों को चीजें कठिन या सरल लगती हैं
किसी को संगीत-शास्त्र अच्छा लगता है
तो किसी तो तत्वार्थ सूत्र
तो किसी तो प्रथमानुयोग के ग्रन्थ
जीव को अन्तराय आदि कर्मों के क्षयोपशम के अनुसार ही अनुकूलताएँ मिलेंगी, बाहरी सुख-दुःख की प्राप्ति होगी