श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 16
सूत्र - 12,13
सूत्र - 12,13
लोकाकाश में सभी द्रव्य रहते हैं।लोक किसे कहते है? आकाश और लोकाकाश को जानिए। धर्म-अधर्म पूरे लोकाकाश में व्याप्त है। व्याप्त और फैलने में अंतर । धर्म और अधर्म द्रव्य पुरे लोक में व्याप्त हैं। प्रभु और विभु में अंतर जानिए।
लोकाकाशेऽवगाह:॥12॥
धर्माधर्मयो: कृत्स्ने॥13॥
Madhu Jain
Delhi
WINNER-1
Ramesh Chandra Jain
Sagar MP
WINNER-2
Mamta Jain
Firozabad
WINNER-3
पूरे लोकाकाश में क्या व्याप्त है?
जीव
पुद्गल
अधर्म *
अलोकाकाश
सूत्र बारह लोकाकाश वगाह में हमने जाना कि लोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह होता है
अवगाह का अर्थ है - रहना, व्याप्त होना, उसमें फैलना
लोकाकाश Universe का वह portion है
जिसमें अभी तक बताए सभी द्रव्य रहते हैं
जिसमें धर्म, अधर्म, जीव, आकाश और स्कंध और अणु रूप पुद्गल का अवगाह है
जो चीज जितने आकाश के स्थान में रखी है वह उसका क्षेत्र बन जाता है
जैसे घड़ा जितना space occupy करता है वह घटाकाश होता है
मनुष्य द्वारा occupied स्थान नराकाश होता है
लोक अनेक द्रव्यों के समुदाय का नाम है
और आकाश का अर्थ है स्थान
अतः लोकाकाश अनेक द्रव्यों के रहने का स्थान है
यह आकाश का ही part है, जहाँ सभी द्रव्य देखे जाते हैं
लोक शब्द संस्कृत में लुक धातु से बना है
जिसका अर्थ है देखना
हिंदी में भी लुक का अर्थ देखना होता है जैसे लुका-छिपी के खेल में
इंग्लिश में भी लुक का मतलब देखना होता है
सूत्र “लोक्यंते दृश्यंते यत्र षड द्रव्याणि तत् स: लोक:” के अनुसार जहाँ छह द्रव्य देखे जाएँ वह लोक है
जीव के context में लोक या संसार की एक अच्छी परिभाषा है कि
जहाँ उसे पुण्य और पाप की परिणीतियाँ और फल देखने को मिले
नरक गति में extreme पाप का फल
देव गति में extreme पुण्य का फल
और बाकी गतियों में थोड़ा balance
कहीं पुण्य ज्यादा और पाप कम
तो कहीं पाप ज्यादा और पुण्य कम हो जाता है
इन चार गतियों में, संसार में पुण्य-पाप के फल के अलावा कुछ भी नहीं है
हमने जाना कि द्रव्य के अन्दर एक अवगाहन गुण होता है
जिसके कारण से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवगाहित करता है
यह अवगाहन लक्षण मुख्य रूप से आकाश द्रव्य का है
जिसने सभी द्रव्यों को अपने में अवगाहित कर रखा है
सूत्र तेरह - धर्माधर्मयो: कृत्स्ने के अनुसार धर्म और अधर्म द्रव्य पूरे लोकाकाश में कृत्स्ने मतलब पूर्ण रूप से व्याप्त हैं
जैसे तिल में तेल
क्योंकि तिल का कोई स्थान तेल से छूटा नहीं है
या जैसे कमरे में प्रकाश पूरे कमरे में फैल गया
इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य पूरे लोकाकाश में फैला हुआ है
व्याप्त है
कोई भी प्रदेश उससे छूटा नहीं है
और उसी के माध्यम से अन्य द्रव्यों में गति और स्थिति आदि बनी रहती है
इस पूर्ण रूप फैलाव को कृत्स्न कहते हैं
ये संपूर्णता के अर्थ में आता है
दसवें अध्याय में, ये सब प्रकार से कर्मों के क्षय के लिए आएगा - ‘कृत्स्नकर्माक्षयात्’
पिछले सूत्र को इस सूत्र से मिलाकर ‘कृत्स्ने लोकाकाशे धर्माधर्मयो: अवगाह:’ बनता है
यानि लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाहन कृत्स्न रूप में है
पूर्ण लोक में ये व्याप्त हैं
ऐसा अवगाहन किसी अन्य द्रव्य का नहीं है
हमने जाना चूँकि लोकाकाश सब के लिए स्थान दे रहा है
इसकी अवगाहन शक्ति सबसे बड़ी है
अतः यही विभु है
प्रभु और विभु अक्सर एक दूसरे के स्थान पर fit हो जाते हैं
पर दोनों के अर्थ में अंतर है
प्रभु का अर्थ है जो सर्व सामर्थ्यवान हो
विभु का अर्थ है जो सबका आधार हो, आश्रय, आश्रय दाता हो
इसलिए आकाश अन्य सभी द्रव्यों के लिए आधार है
और अन्य द्रव्य उसके आधेय
यह आधार-आधेय संबंध होता है