श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 38
सूत्र - 22,23,24
Description
मन का तीसरा विशेष कार्य आलाप होता है l मच्छर घूम कर एक ही जगह कैसे आता है? विकलेन्द्रिय भी अपना हित अहित समझते हैं, कैसे? श्रुतज्ञान की भी प्रवृत्तियाँ मति ज्ञानपूर्वक होती हैं l संज्ञी जीव में विशेष मतिज्ञान होता है l मतिज्ञान का स्वरूप अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा है l श्लोकवार्तिक में सामान्य-विशेष दोनों मति श्रुत ज्ञानों को स्वीकारा है l संज्ञीपन का विशेष कार्य आत्महित है l
Sutra
वनस्पत्यन्तानामेकम्।l22।l
कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि।l23ll
संज्ञिनः समनस्काः।l24ll
Watch Class 38
WINNERS
Day 38
17th June, 2022
Chanda jain
Patna Bihar
WIINNER- 1
Mamta Jain
Jabalpur
WINNER-2
Seema Modi
Khurai Sagar Madhya Pradesh
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
इनमें से कौनसा मतिज्ञान का भेद नहीं है?
अवग्रह
ईहा
उपाय *
धारणा
Abhyas (Practice Paper):
Summary
मन का तीसरा विशेष कार्य आलाप यानि शब्द बोलना, कुछ कहना या समझाना होता है
जीव मन के साथ बोलते हुए ही शब्दों में ज्ञान डाल पाता है
वक्ता के भीतर उसके ज्ञान की reel चलती रहती है और उसी के अनुरूप शब्द संरचना होती रहती है
यदि कोई भीतर ज्ञान arranged है तो लंबे समय तक सही ढंग से बोल सकते हैं
यह सामान्य-मन का काम नहीं है
यह सोते हुए, ऊँघते हुए नहीं होगा
जो हम दूसरों को ज्ञान देते हैं, उन्हें जो चीजें नहीं आती वो बताते हैं, वो सब उपदेश में आता है
अतः शिक्षा, आलाप, क्रिया, उपदेश ये सब चीजें मन के माध्यम से संज्ञी-जीवों में होती हैं
विशेष मन के कार्य समझने के पश्चात् हमने मन रहित जीवों की क्रियाओं को समझा, जो देखने में ऐसा लगता है कि बिना मन के संभव ही नहीं हैं
जैसे मच्छर बार-बार हटाने पर भी फिर से घूम कर वहीं आकर बैठता है
यदि उसके मन नहीं है तो उसे कैसे याद होगा कि आदमी वहीं होगा
हमने समझा कि यह उसका मन नहीं अपितु उसकी धारणा है
मतिज्ञान का भेद धारणा अपना काम कर रही है
वही मच्छर धुआँ या किसी chemical की smell को अहितकारी मानकर दूर भागेगा
उसे अपने हित और अहित की कुछ स्मृति तो है
इसमें भी हम शंका कर सकते हैं कि बिना मन के स्मृति और धारणा भी कैसे होगी?
तो आचार्य विद्यानंदी महाराज ने श्लोकवार्तिक टीका में इसका निवारण करते हुए लिखा है कि
ये प्रवृत्तियाँ मतिज्ञान पूर्वक होने वाली श्रुतज्ञान की प्रवृत्तियाँ होती हैं
इन जीवों का मतिज्ञान भी सामान्य-रूप से होता है
जिसमें सामान्य सी स्मृति रहती है
सामान्य ईहा यानि जानने की इच्छा होती है
सामान्य अवाय यानि सामान्य रूप से कुछ निश्चय करना और
सामान्य धारणा होती है यानि जिस विषय की ललक है बस उस विषय को पाकर के ही सन्तुष्ट होते हैं
संज्ञी जीव में विशेष मतिज्ञान अर्थात विशेष ईहा, अवाय, धारणा होती है
मतिज्ञान अवग्रह से शुरू होता है जो सामान्य है
श्लोकवार्तिक में सामान्य-विशेष दोनों मति-श्रुत ज्ञानों को स्वीकारा है
जैसे चींटी बिना confuse हुए नमक और बुरे के ढेर में से हमेशा बूरे से ही चिपकेगी
क्योंकि उसके अन्दर भी ईहा, अभिलाषा पड़ी है
मगर उसके अन्दर मतिज्ञान की सभी परिणतियाँ सामान्य-रूप हैं
सामान्य स्मृति के माध्यम से उसे मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान होगा
इससे वह हित में प्रवृत्ति और अहित से बचने के लिए तैयार रहेगी
जैसे ही बूरे को धूप में रखा जाएगा
सामान्य-अवाय, सामान्य-धारणा के साथ उसका श्रुतज्ञान भी काम करेगा
और वह वहाँ से इसे अहितकारी जान कर चली जायेगी
अतः विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों में भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्तियाँ विशेष-रूप से चलती हैं
उपसंहार में हमने जाना कि संज्ञीपन का सबसे विशेष काम, सबसे बड़ा काम आत्महित है