श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 42
सूत्र - 27,28
सूत्र - 27,28
ध्यान कर्म की निर्जरा में सहायक। तत्त्व का श्रद्धान ही उपशम सम्यक्त्व की परिणति। एकाग्र चिन्तन अर्थात् उपयोग को एक ही ध्येय पर रोकना। कर्मों का टूटना। अन्तर्मुहूर्त में सिद्धि। धर्म ध्यान के बाद ही शुक्ल ध्यान। ध्यान के प्रकार। शुभ और अशुभ ध्यान। आर्त ध्यान अर्थात् दुःख में होने वाला ध्यान।
उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानमान्त-र्मुहूर्तात्॥9.27॥
आर्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लानि॥9.28॥
25, dec 2024
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कितने प्रकार के ध्यान प्रशस्त कहे गए हैं?
एक
दो*
तीन
चार
ध्यान के प्रकरण में सूत्र सत्ताईस उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानमान्त-र्मुहूर्तात् में हमने जाना
शुक्ल ध्यान उत्तम संहनन, यानि उत्तम शक्ति से ही होता है।
अन्य ध्यान जिससे मोह में कमी आए,
कर्म निर्जरा हो,
दर्शनमोहनीय कर्म का, अनन्तानुबंधी कषायों का उपशमन हो,
सम्यग्दर्शन हो
उसके लिए भी शक्ति लगती है।
वह हीनतम संहनन से नहीं होता।
यूँ तो उपशम सम्यग्दर्शन शरीर के छहों संहनन में हो सकता है
पर शक्ति हम तभी लगा पाएँगे जब
तीन अप्रशस्त संहननों में
कम से कम ऊपर के दो हों।
तभी आत्मा के अन्दर कषायों का,
मिथ्यात्व आदि वैभाविक कर्मों का अभाव होता है।
हमने जाना, सम्यग्दर्शन से तत्त्व श्रद्धा उत्पन्न होती है।
आत्मा के अन्दर-
जीव-अजीव तत्त्व की श्रद्धा
क्या आत्मा है, क्या अनात्मा?
यह श्रद्धा बनी रहना ही,
उपशम सम्यक्त्व की परिणति कहलाती है।
जब उत्तम संहनन वाला
अपना ज्ञान, अपना उपयोग, अन्तर्मुहूर्त तक के लिए
एक मुख्य ध्येय पर ही रोकता है
यानि एकाग्र चिन्ता निरोध करता है
तभी कर्मों का क्षय होता है।
जब आत्मा का उपयोग एक ही ध्येय पर,
अपने ही स्वभाव पर,
अन्तर्मुहूर्त के लिए टिक जाए
तब केवलज्ञान हो जाता है।
कर्मों का क्षय बुद्धिपूर्वक नहीं होता
कि अब हम क्षय करने बैठ रहे हैं।
क्षय के लिए कुछ करना नहीं पड़ता।
बस अपने उपयोग को एकाग्र करना होता है।
कर्मों का क्षय तो अपने आप होगा।
जैसे दीवार को तोड़ना हो तो हम उसे बस ठोकते हैं
हिल तो वो खुद जाती है,
टूट खुद जाती है।
ऐसे ही जब अपने उपयोग की कील,
हम अपने ही उपयोग स्वभाव में ठोकेंगे
तो कर्मों की दीवार खुद ढह जाएगी।
अपने को अपने में ठोकना सबसे कठिन होता है।
अब तक तो हम खुद को बस दूसरों में ठोकते रहे हैं
अब खुद में ठोकें।
शुरू में ताकत और समय बहुत लगते हैं
और result कम मिलता है
पर लगातार ठोकते रहने से
एक स्थिति आती है
जब बस आखिरी चोट दी और दीवार गिर जाती है।
ऐसे ही- लम्बे समय तक धर्म ध्यान करके
कर्मों को ठोक-ठोक कर
अन्तिम स्थिति तक ले जाना होगा
उसके बाद शुक्ल ध्यान की अन्तिम चोट तो बस अन्तर्मुहूर्त के लिए लगेगी
और कर्म एक क्षण में गिर जाएँगे,
केवलज्ञान क्षण भर में हो जाएगा।
मोक्ष कराने वाला शुक्ल ध्यान मुख्य होता है
पर उसके लिए धर्म ध्यान आवश्यक है।
बिना धर्म ध्यान के कभी शुक्ल ध्यान नहीं होता।
सूत्र अट्ठाईस आर्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लानि में हमने ध्यान के चार प्रकार जाने-
आर्त ध्यान,
रौद्र ध्यान,
धर्म्य ध्यान और
शुक्ल ध्यान।
तीसरा ध्यान धर्म्य ध्यान है
धर्म और धर्म्य में अन्तर हम प्रवचनसार जी के प्रवचनों से जान सकते हैं।
पहले के दो- अप्रशस्त ध्यान
और अन्तिम दो प्रशस्त ध्यान, शुभ ध्यान होते हैं
वे दो ही मोक्ष के कारण बनते हैं।
आर्त का मतलब दुःख होता है
यह ऋत शब्द से बना है।
दुःख के भाव से जो उत्पन्न हुआ है, उसको आर्त कहते हैं।
आर्त ध्यान में हमारा मन दुःख में डूबा रहता है,
दुःख का कारण मन में बना रहता है
और मन उसी का चिन्तन करता है,
एकाग्र चिन्ता निरोध दुःख में करता है।
सूत्र सताईस के शब्द यहाँ भी लगते हैं।
उत्तम संहनन वाला अच्छा बड़ा दुःख रखेगा,
और हमारा संहनन कम है तो चिन्ता से भी हमारा ध्यान बार-बार हट जाएगा
बहुत देर तक दुःख में भी नहीं टिकेगा,
लेकिन वह बार-बार होगा।