श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 03
सूत्र -01,02
सूत्र -01,02
चौदहवां गुण स्थान चतुर्थ शुक्ल ध्यान का गुणस्थान होता है। जब तक योग है तब तक आत्मा कर्म का कर्ता है। नो कर्म वर्गणाओ के आलंबन से योग होता है।
काय-वाङ् - मन:कर्मयोगः॥1॥
स आस्रवः॥2॥
2nd Aug,
2023
Alka Jain
Delhi
WINNER-1
Sandeep Jain
Jabalpur
WINNER-2
Kirti Hemant Jain
Nagpur
WINNER-3
कौनसा शुक्ल ध्यान केवल योग से रहित अवस्था में होता है?
प्रथम
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ*
हमने काय, वचन और मन के आश्रित पहले से तेरहवें गुणस्थान तक
योग के साथ आस्रव की व्यवस्था को जाना
यह बारहवें गुणस्थान तक क्षयोपशम भाव के साथ
और तेरहवें गुणस्थान में क्षय के साथ होता है
सयोगी केवली में भी काय, वचन, और मनो वर्गणाओं का आलंबन होता है
जिससे इनमें भी योग
और आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन होता है
सयोगी केवली के
काय का व्यापार चलने, गमन करने रूप होता है
वचन का बोलने रूप होता है
लेकिन क्षायिक ज्ञान होने के कारण
द्रव्य मनोवर्गणाएँ का आलंबन होते हुए भी
मन का चिंतन, मनन रूप व्यापार नहीं होता
मनोवर्गणाओं के कारण से सिर्फ द्रव्य मनोयोग होता है
चौदहवाँ अयोग केवली गुणस्थान; सम्मूर्छन व्युपरत निवर्ती नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान का होता है
यही अवस्था योग और आस्रव से रहित है
इसी शुक्ल ध्यान में सबसे ज्यादा कर्मों की निर्जरा होती है, क्षय होता है
अन्य सभी शुक्ल ध्यानों, गुणस्थानों के साथ योग जुड़ा हुआ है
मुनि श्री ने समझाया कि जब तक योग है तब तक आत्मा कर्म का कर्ता है
सूत्र एक कायवाङ्मन:कर्म योग: में
योग को अलग रखा है
मन: के साथ तक कर्म जोड़ना है
अर्थात काय, वचन, मन कर्म हैं
और कर्म किसी न किसी कर्ता की अपेक्षा रखता है
वह कर्ता यहाँ जीव आत्मा है
यानि जीव आत्मा ये तीनों कर्म कर रहा है
और इसी कर्म के साथ में हो रही क्रिया, योग है
या यूँ कहिए कर्म ही क्रिया है
अध्यात्म पढ़ने के बाद लोग, चौथे गुणस्थान से ही, आत्मा तो कर्म का अकर्ता मानने लगते हैं
और कहते हैं कर्म करना छोड़ दो
जबकि सिद्धांत की अपेक्षा से जब तक आत्मा योग का कर्ता है तब तक कर्म का भी कर्ता है
जब तक वह कर्म कर रहा है तब तक वह कर्ता है
मुनि श्री के अनुसार यही तत्त्वार्थ सूत्र और समयसार जी के कर्ता-कर्म अधिकारों में अंतर है
सयोगी केवली के लिए भी आत्मा कर्ता है
और नो कर्म वर्गणाओं के आलंबन से उनके द्वारा होने वाला योग, उनका कर्म है
जब तक आत्मा के अंदर कर्म चल रहा है तब तक उसमें कर्तृत्व भाव रहता है
और इसी कारण से इसे यहाँ कर्म कहा गया है
मुनि श्री ने अपने चिंतन से सूत्र की एक नई व्याख्या भी समझाई
काय, वाङ्, मन: और कर्म इन सबका वर्गणाओं से संबंध है
क्रमशः ये काय-वर्गणाएँ, वचन-वर्गणाएँ, मनो-वर्गणाएँ और कर्म-वर्गणाएँ होती हैं
इनमें से पहली तीन नोकर्म वर्गणाएँ हैं
और अंतिम कर्म वर्गणाएँ
यहाँ पर कर्म मतलब अब क्रिया नहीं है बल्कि कर्म वर्गणाएँ है
इस प्रकार एक नई परिभाषा बनती है
नोकर्म और कर्म वर्गणाओं के आलंबन से जो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन होता है, उसका नाम योग है
यह परिभाषा पूरी तरह fit बैठती है
क्योंकि योग में हमेशा या तो कर्म वर्गणाओं का आलंबन होगा या केवल नोकर्म वर्गणाओं
विग्रह गति में जहाँ केवल कर्म योग होता है, कर्म वर्गणाओं का आलंबन होता है
और जब शरीर बनना शुरू होता है या बन जाता है तब सब नोकर्म वर्गणाओं का आलंबन होता है
हमें आस्रव तत्व को जरूर समझना चाहिए
ताकि हम इसे रोकने के लिए
उन भावों को, क्रियाओं को भी जानें
जिनसे यह निरंतर होता रहता है