श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 32
सूत्र -31,32,33
सूत्र -31,32,33
पूर्व सूत्र के आए हुए घातायुष्क संबंधी 'कुछ अधिक' को इन आयु के साथ भी जोड़ना।घातायुष्क बारहवें स्वर्ग तक के देवों की आयु में ही होता है।देवियों की उत्कृष्ट आयु।नौ ग्रैवेयकों के देवों की उत्कृष्ट आयु।इकत्तीस सागर तक की आयु जीव मिथ्यात्व के साथ प्राप्त कर सकता है।अनुदिश और अनुत्तरों के देवों की उत्कृष्ट आयु।तत्त्वार्थ-सूत्र ग्रंथराज के अनुसार सर्वार्थसिद्धि के देवों की आयु का एक ही विकल्प है तैंतीस सागर।सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु।
त्रि-सप्त-नवैकादश-त्रयोदश-पञ्चदशभि-रधिकानितु ॥4.31॥
आरणाच्युता-दूर्ध्व-मेकैके-नवसु-ग्रैवेयकेषु-विजयादिषु-सर्वार्थसिद्धौ-च ॥4.32॥
अपरा पल्योपम-मधिकम्॥4.33॥
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देवियों की उत्कृष्ट आयु कितनी होती है?
इकतालीस (41) पल्य
पचपन (55) पल्य*
पाँच (5) सागर
दस (10) सागर
देवों की आयु के प्रकरण में कल हमने सोलहवें स्वर्ग तक की बाईस सागर की उत्कृष्ट आयु को जाना
पिछली कक्षाओं में हमने दो सूत्रों में “अधिक” शब्द के अलग-अलग अर्थ को समझा
सूत्र में अधिकानि का प्रयोग पिछले स्वर्ग से अधिक के लिए आया है
जैसे सात से तीन अधिक दस सागर की आयु
सूत्र में सागरोपमे-अधिके का प्रयोग “कुछ अधिक” के अर्थ में हुआ है
घातायुष्क होने पर सम्यकदृष्टि को आधा सागर अधिक और मिथ्यादृष्टि को पल्य के असंख्यात्वें भाग अधिक आयु प्राप्त होती है
सूत्र इकतीस में “रधिकानि तु” में “तु” शब्द से तात्पर्य है कि घातायुष्क की व्यवस्था बारहवें सहस्रार स्वर्ग तक ही होती है
सहस्रार स्वर्ग से आगे के स्वर्गों की उत्कृष्ट आयु निश्चित होती है
यहाँ घातायुष्क उत्पन्न नहीं होते
हमने जाना कि देवियों की उपपाद शैय्या या उत्पाद पहले-दूसरे स्वर्ग तक ही होता है
यहाँ से वे अलग-अलग स्वर्गों में अपने नियोगी देवों द्वारा ले जाई जाती हैं
उनको आयु भी नियोग के अनुसार ही मिलती है
देवियों की उत्कृष्ट आयु स्वर्ग के जोड़े के अनुसार नहीं बल्कि हर स्वर्ग पर अलग होती है
देवियों की उत्कृष्ट आयु
सौधर्म स्वर्ग में पाँच पल्य
ऐशान में सात
सानत्कुमार में नौ
माहेन्द्र में ग्यारह
ब्रह्म में तेरह
ब्रह्मोत्तर में पंद्रह
लांतव में सत्रह
कापिष्ठ में उन्नीस
शुक्र में इक्कीस
महाशुक्र में तेईस
शतार में पच्चीस
और बारहवें सहस्रार स्वर्ग में सत्ताईस पल्य होती है
ऊपर के स्वर्गों में यह सात पल्य से बढ़ती है
आनत-प्राणत, आरण-अच्युत में यह चौंतीस, इकतालीस, अड़तालीस और पचपन पल्य होती है
सूत्र बत्तीस आरणाच्युता-दूर्ध्व-मेकैके-नवसु-ग्रैवेकेषु-विजयादिषु-सर्वार्थसिद्धौ-च के अनुसार सोलहवें स्वर्ग से ऊपर उत्कृष्ट आयु एक-एक सागर अधिक होती है
यह अधो ग्रैवेयक में - तेईस, चौबीस, पच्चीस सागर
मध्य ग्रैवेयक में - छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस सागर
ऊर्ध्व ग्रैवेयक में - उनतीस, तीस, इकतीस सागर होती है
इकतीस सागर तक की आयु को मिथ्यादृष्टि जीव भी प्राप्त कर भव-परावर्तन में भ्रमण कर सकता है
“विजयादिषु” सूत्र से अनुदिशों में बत्तीस सागर की आयु
और विजय आदि पांच अनुत्तर विमानों में तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु होती है
“सर्वार्थसिद्धौ-च” सूत्र अलग से लिखने का कारण है कि सर्वार्थसिद्धि में तैंतीस सागर की ही आयु होती है, यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट आयु नहीं होती
यहाँ तत्त्वार्थ सूत्र की परंपरा अनुसार ही देव और देवियों की उत्कृष्ट आयु का वर्णन किया गया है
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कुछ अलग विशेषताएं हैं, जिन्हें सुधी श्रावकों स्वयं पढ़, समझ सकते हैं
सूत्र तैंतीस अपरा पल्योपम-मधिकम में अपरा अर्थात् “जघन्य स्थिति” का वर्णन शुरू हो रहा है
हमने जाना
ज्योतिषी देवों की जघन्य स्थिति एक पल्य से कुछ अधिक होती है
तत्त्वार्थ-सूत्र की टीकाओं के अनुसार यह एक पल्य से एक लाख वर्ष एक समय अधिक हो सकती है