श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 29
सूत्र - 33,34
सूत्र - 33,34
सामायिक व्रत के अतिचार। काय का दुःप्रणिधान। अनादर। मन का दुःष्प्रणिधान और स्मृति नहीं रहना में अन्तर।
योगदुष्प्रणिधानानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि॥7.33॥
अप्रत्यवेक्षिता-प्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि ॥7.34॥
24th, Jan 2024
Shalini Jain
Firozabad
WINNER-1
Swati Nandre
Jaysingpur
WINNER-2
Manjusha
Mumbai
WINNER-3
सामायिक के समय किये हुए आवर्त की संख्या ध्यान नहीं रहना क्या है?
मन का दुःष्प्रणिधान
काय का दुःष्प्रणिधान
अनादर
स्मृति अनुपस्थापन*
हमने समझा कि अनर्थदंड से बचकर हम पाप छोड़कर पुण्य में प्रवृत्ति कर सकते हैं
हम अपने को और बच्चों को mobile से हटाकर ही
बिना वजह, मन के खोटी प्रवृत्तियों में लगने से हो रहे पाप से बचा सकते हैं
इन सूत्रों का अर्थ न समझने से ही ऐसी प्रवृत्तियाँ आती हैं
सूत्र तैतीस योगदुष्प्रणिधानानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि में हमने सामायिक व्रत के अतिचार समझे
प्रतिमाधारी व्रती के सामायिक करने का नियम होता है
इसमें हम सुबह से शाम तक की गयी राग-द्वेष की प्रवृत्तियों को, कषायों को छोड़कर
मन को निर्मल बनाते हैं
थोड़ी देर के लिए समभाव में आते हैं
इसके पहले तीन अतिचार हैं योग का दुष्प्रणिधान
अर्थात मन-वचन-काय की अन्यथा प्रवृत्ति करना
मन के दुष्प्रणिधान में ध्यान या सामायिक में बैठते ही मन आर्त ध्यान में उलझ जाता है
स्मृति इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग में चली जाती है
मन विषय कषायों में उलझ जाता है
हम दिग्वंदना, भक्ति-पाठ आदि सामयिक की क्रिया भी कर रहे होते हैं
लेकिन मन का दुःप्रणिधान भी चलता रहता है
वचन के दुष्प्रणिधान में सामायिक के पाठ आदि करते समय
हमारे वचन में कुछ और चलता है और पाठ दूसरा होता है
पाठ शुरू तो होता है लेकिन हमें पता नहीं होता है कि वह कब पूरा हो जाता है
बीच में क्या हुआ - पता नहीं पड़ता
इसी तरह सामायिक भी शुरू और ख़त्म हो जाती है
काय के दुष्प्रणिधान में पता ही नहीं रहता कि हम क्या कर रहे हैं?
जैसे कायोत्सर्ग के लिए खड़े हैं पर कितने श्वासोच्छवास, मंत्रोचार हो गए?
या जैसी इच्छा आई वैसा खुजा लिया
ये दुष्प्रणिधान सामायिक को नष्ट तो नहीं करते
लेकिन उसमें दोष लगाते हैं
और हम सामायिक की व्यवस्थित स्थिति को touch नहीं कर पाते
चौथा अतिचार अनादर है
इसमें सामयिक की क्रियाओं में आदर या उत्साह नहीं होता
हम नियम के कारण सामायिक करते तो हैं
लेकिन करना कुछ और था
अगर नहीं करेंगे तो सामायिक न करने का विकल्प आ जाएगा
हम time निकालने के लिए, उदासीन होकर बैठ जाते हैं
माला आदि भी फेरते हैं
लेकिन मन रागादि में लगा रहता है
यह उसका अनादर है
आदर भाव से सामयिक करने में समय का पता ही नहीं चलता
स्मृति अनुपस्थापनानी दोष में स्मृति ही उपस्थित नहीं रहती
जैसे बैठते समय तो हमने सोचा कि सामायिक में हम बारह भावना, णमोकार आदि का चिंतन करेंगे
लेकिन थोड़ी देर में स्मृति न जाने कहाँ-कहाँ चलती रहती है
यह lack of concentration है
mind हमारे control में नहीं है
मन के दुःष्प्रणिधान में मन खोटा-खोटा सोचता है
लेकिन स्मृति के अनुपस्थापन में स्मृति नहीं रहती
कि हमें कौनसा पाठ, क्रिया, आवृत्ति आदि करने हैं?
किस दिशा में करने हैं, कितने रह गए हैं आदि
कभी-कभी सामायिक की ही स्मृति नहीं रहना भी, इसी दोष में आता है
हमने जाना कि प्रोषधोपवास व्रत के धारी
अष्टमी चतुर्दशी को जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट प्रोषधोपवास करते हैं
उत्कृष्ट प्रोषधोपवास उपवास के साथ होता है
जिसमें चारों प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग होता है
मध्यम में एक time जल
और जघन्य में एक time छोटा सा नीरस भोजन ले लेते हैं
प्रोषधोपवास में शारीरिक थकान, भूख-प्यास के कारण
सामायिक, पूजन आदि व्रती की क्रियाओं में प्रमाद आने से इसमें दोष लगते हैं
जिन्हें हमने सूत्र चौंतीस अप्रत्यवेक्षिता-प्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि में जाना
इसमें उत्सर्ग, आदान और संस्तरोपक्रमण के साथ अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित शब्द लगाकर तीन पद बनाते हैं
अप्रत्यवेक्षित का अर्थ है बिना देखे
और अप्रमार्जित का अर्थ है बिना शोधे, बिना परिमार्जन किये
परिमार्जन में हम किसी कोमल कपडे आदि से
जीव-जंतुओं को हटाकर ही वस्तु ग्रहण करते हैं या क्रिया करते हैं