श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 05
सूत्र - 03,04
सूत्र - 03,04
कर्म प्रकृतियों के क्षय और मोक्ष के बीच कोई समय अन्तराल नहीं होता । संसार दशा में ही भव्यत्व भाव होता है । भव्यत्व भाव: सिद्ध गति तक पहुँचाने का ticket। सामान्य और विशेष गुणों से सुशोभित सिद्ध आत्माएँ । मनुष्य गति के सुख शरीराश्रित हैं । सिद्धों का शुद्ध सुख । केवलज्ञान या अनन्तज्ञान ?
औपशमिकादि-भव्यत्वानां च॥10.3॥
अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य:॥10.4॥
25, Apr 2025
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भव्यत्व निम्न में से कौनसा भाव होता है?
औपशमिक
क्षायोपशमिक
क्षायिक
पारिणामिक *
मोक्ष के प्रकरण में आज हमने जाना-
केवलज्ञान होने तक तिरसठ (63) कर्मप्रकृतियों का क्षय हो चुका होता है।
और अयोगकेवली के अन्त और उपान्त समय में शेष पिचियासी (85) भी नष्ट हो जाती हैं।
इधर सम्पूर्ण 148 (एक-सौ-अड़तालीस) कर्मप्रकृतियों का क्षय हुआ, उधर मोक्ष हो जाता है।
कर्मों का व्यय और सिद्ध पर्याय का उत्पाद एक ही समय में होता है
Time gap नहीं होता।
एक समय में ही उनके आत्मप्रदेश लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाते हैं।
अध्याय दो के सूत्र तीन औपशमिकादि-भव्यत्वानां च में हमने जाना था कि
पाँच भावों में से औपशमिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव नष्ट हो जाते हैं।
क्षायिक भावों का नाश नहीं होता है।
कर्मों के क्षय से बने क्षायिक भाव हमेशा बने रहते हैं।
सामान्यतया पारिणामिक भावों का भी नाश नहीं होता।
लेकिन भव्यत्व पारिणामिक भाव सिद्ध बनने से पहले तक ही रहता है।
क्योंकि भव्यत्व का मतलब होता है- कुछ होना, कुछ बनना।
सिद्ध बनने के बाद कुछ बनना शेष नहीं रहता।
इसलिए भव्यत्व भाव पारिणामिक होते हुए भी केवल संसार दशा में होता है
जो सिद्धत्व की प्राप्ति कराने के लिए ही होता है।
यह जीवत्व आदि पारिणामिक भावों की तरह नहीं होता
जो शुद्ध और अशुद्ध, संसार और मुक्त दोनों दशा में बने रहते हैं।
भव्यत्व पारिणामिक भाव ticket की तरह होता है
Ticket अपने गन्तव्य station तक पहुँचने तक चाहिए होता है।
हमने जाना - सामान्य गुणों का कभी नाश नहीं होता।
अस्तित्व, वस्तुत्व, अनाकार, निष्क्रियपना आदि सभी सामान्य गुण भी उनमें हमेशा बने रहते हैं।
इस प्रकार कर्मों के क्षय से उत्पन्न
विशेष और सामान्य गुणों से सुशोभित सिद्ध आत्माएँ
अनन्त गुणों के प्रकट होने से परम आनन्द को प्राप्त हो जाती हैं।
उनका आनन्द हम संसारी जीवों के आनन्द से compare नहीं किया जा सकता।
अगर हम सोचें कि वे
न कुछ खा रहे हैं,
न हस रहे हैं,
न सो रहे हैं,
न किसी से मिल रहे हैं,
न कुछ भोगों की सामग्रियाँ हैं,
तो कैसे सुखी होंगे?
तो मुनि श्री कहते हैं कि ये सब सुख तो कर्म के आश्रित होने से पराधीन होते हैं।
पराधीन होने से हम शरीर के आश्रित हैं - कभी ठण्ड-ठण्ड करते हैं तो कभी गर्मी-गर्मी।
सिद्धों को शरीर ही नहीं है, कोई कर्म ही नहीं है
तो पुद्गल के अभाव होने से शरीर आश्रित पराधीनताएं भी नहीं होतीं,
ठण्डी-गर्मी आदि स्पर्श नहीं होते,
आत्मा की अत्यन्त शुद्ध अवस्था प्रकट हो जाती है,
यही उनका शुद्ध सुख होता है।
excess सुख होने पर भी हम बेचैन हो जाते हैं
पर उनका शुद्ध सुख अनन्त काल तक ऐसे ही बना रहता है।
सूत्र चार अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य: में हमने जाना कि
उनके पास केवल सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व रहता है।
केवल सम्यक्त्व यानि बस समीचीन परिणति
only rightness।
केवलज्ञान यानि only knowledge।
उनके पास बस knowledge रह गयी
knowledge means knowledge
उसमें कोई classification नहीं होता।
जो आत्मा की अपनी knowledge की pure quality थी - ज्ञान स्वरूपी चेतना
वह appear हो जाती है
इसलिए उसको केवलज्ञान कहा जाता है।
केवल ज्ञान के दो मतलब होते हैं-
only knowledge या infinite knowledge
ऐसे ही उनके पास केवल दर्शन रहता है।
सिर्फ देखना और कुछ नहीं।
उनके अन्दर इतनी शक्ति आ जाती है कि वह अनन्त ज्ञेयों को देखते और जानते हैं।
अनन्त को जानने के कारण हम कहते हैं कि उन्हें अनन्त ज्ञान है
लेकिन वास्तव में उनके पास में केवल ज्ञान होता है।
अनन्तपना तो परापेक्षी होता है
क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं इसलिए ज्ञान को अनन्त कह देते हैं,
वास्तव में तो उन्हें स्वाधीन केवल ज्ञान होता है।