श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 28
सूत्र - 19
सूत्र - 19
अवमौदर्य तप व वृत्तिपरिसंख्यान तप का तुलनात्मक विवेचन। श्रावक के लिए वृत्तिपरिसंख्यान तप। वृत्तिपरिसंख्यान तप मे वृत्तियों की विशेषता। वृत्तिपरिसंख्यान तप आचरण का एक अनुभव। 4) रसपरित्याग तप। रसपरित्याग से होता शरीरगत व्याधीओं पर नियंत्रण। रसपरित्याग से पुष्ट होती है- सात्विकता। रस परित्याग से नियंत्रित होती है रस-आसक्ती, कराती है अच्छी सल्लेखना। 5) विविक्तशय्यासन तप। 6) कायक्लेश तप।
अनशनाव-मौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रस-परित्याग-विविक्त - शय्यासन-कायक्लेशा बाह्यं तपः॥9.19॥
18, nov 2024
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घी-तेल का त्याग कौनसे तप में आएगा?
अवमौदर्य तप
वृत्ति परिसंख्यान तप
रस परित्याग तप*
विविक्त शय्यासन
बाह्य तप के प्रकरण में हमने जाना कि
वृत्तिपरिसंख्यान सिर्फ पड़गाहन का नहीं होता,
यह चौके के अन्दर भी हो सकता है।
जैसे इस बर्तन में मिलेगा
या वह दाता देगा तो ही यह चीज़ लेंगे
अन्यथा नहीं।
यह अवमौदर्य से बढ़कर होता है-
क्योंकि उसमें तो कोई भी चीज़ ले सकते हैं।
पर यहाँ वस्तु और उसे लेने की इच्छा - दोनों होते हुए भी
साधक देखते हैं कि दाता समझ रहे हैं या नहीं
और संकल्प के अनुरूप नहीं मिलने पर साधक वह वास्तु नहीं लेते।
जिससे इच्छाओं का निरोध होता है।
वृत्तिपरिसंख्यान कोई भी कर सकता है
जो किसी पर dependent हो
या कोई खिलाने वाला हो
जैसे व्रती श्रावक।
गृहस्थ के लिए यह मुश्किल होता है
क्योंकि घरवाले दें और हम नखरे दिखायें
तो दिक्कत हो सकती है।
पर अनशन और अवमौदर्य हमारे हाथ में होते हैं।
संख्यान
गाँव, गली, मोहल्ला, बर्तन, भोजन, व्यक्ति आदि
किसी भी वृत्ति का हो सकता है।
कभी एक घर में आहार नहीं मिलता तो
दूसरे घर जाना होता है।
ऐसे अधिकतम 7 घरों में जा सकते हैं।
आचार्य श्री तीन घरों की सीमा कहते हैं।
एक बार मुनि श्री का तीन चौकों से लौटने पर यह तप हुआ था।
यह कई बार अपने आप भी हो जाता है।
चौथे रसपरित्याग तप में कुछ या सारे रसों का त्यागपूर्वक आहार करते हैं
रस छह होते हैं
घी-तेल,
दूध-दही और
मीठा-नमक।
या फिर पाँच होते हैं
कड़वा, कषायला, तीखा, चरपरा और नमकीन।
रसों पर नियंत्रण रखने से
बीमारियाँ नियंत्रित होती हैं।
Limit से अधिक
घी-तेल से Cholesterol और heart संबंधी problem,
और दूध-दही से fat, obesity होते हैं।
नमक kidney के लिए नुकसानदायक होता है
और मीठे से diabetes होती है।
रसपरित्याग से ये विकार नहीं बढ़ते
और हमारे अन्दर
सात्विक वृत्ति,
अपने स्वभाव में रहने का मन,
धर्म ध्यान में शालीनता,
अपने आप आती है।
क्योंकि रस अधिक मिलने पर शरीर
बाहरी वृत्ति में ज्यादा जाता है,
अन्तर्मुखी कम होता है।
रस-त्याग से आसक्ति का त्याग होता है
हमारी किसी-न-किसी रस में आसक्ति रहती है।
जिस चीज में हमारी आसक्ति है,
हमें उसी का त्याग करना चाहिए।
किसी-किसी को पूरा भोजन होने पर भी,
अपने पसन्द का रस न मिलने पर,
मन में अभाव बना रहता है,
जैसे कुछ खाया ही नहीं।
हमें इस अभाव को जीतना है।
नीरस भोजन के अभ्यास से
सल्लेखना अच्छे से हो पाती है,
अन्यथा उसमें दिक्कत होती है।
आचार्य श्री ने एक दादा जी को सल्लेखना से पहले
उनके बूरे में अत्यधिक आसक्ति को ही हटवाया
तब उनकी समाधी हुई।
किसी भी रस में अत्यधिक आसक्ति,
कि हम इसके बिना रह नहीं सकते
ऐसा नहीं होना चाहिए।
इसे जीतने के लिए,
रसपरित्याग करते रहना चाहिए।
पाँचवें विविक्तशय्यासन का अर्थ है
विविक्त मतलब एकान्त में,
शैय्या मतलब शयन करना और
आसन में बैठना।
जहाँ लोगों का, अलग तरह की स्त्रियों का, या पशुओं का आना-जाना हो,
जो अपने धर्म-ध्यान में बाधक डाले,
या गृहस्थों के घर-
जहाँ यह feeling आए कि हम गृहस्थों के यहाँ रह रहे हैं,
ऐसे स्थानों से बचकर
वह स्थान
जिसका कोई स्वामी नहीं हो,
जो किसी का मार्ग नहीं हो,
कोई आए तो बस दर्शन के लिए।
ऐसे एकान्त में रहना विविक्तशय्यासन कहलाता है।
छठे कायक्लेश तप में
काया मतलब शरीर को,
क्लेश देकर भी प्रसन्न रहा जाता है।
शीत ऋतु में और अधिक शीत सहना,
गर्मी में और अधिक गर्मी सहना,
बैठने की शक्ति बढ़ाना,
कायोत्सर्ग करके बहुत देर तक खड़े होने की शक्ति बढ़ाना-
यह सब कायक्लेश में आता है।