श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 07
सूत्र - 05,06
सूत्र - 05,06
जीव मुक्त होने के क्षण में ही उर्ध्व गमन कर लेता है । उर्ध्व गमन एक सहज प्रक्रिया है । मोक्ष ढाई द्वीप से ही सम्भव है । मुक्त होने पर जीव तीव्रता से सात राजू गमन कर लेता है । लोक के अन्त तक ही शुद्ध जीव का उर्ध्व गमन है । आत्मा अपने परिणमन स्वभाव के अनुसार मर्यादित गति करता है । शुद्ध आत्माएँ भटकती नहीं है अपितु लोकाग्र में स्थित हो जाती है । शुद्ध आत्माएँ लोक व्यवस्था के अनुरूप नियमों का पालन करती हैं । उर्ध्व गमन ही क्यों ?
तदनन्तर-मूर्ध्वं गच्छत्या-लोकान्तात्॥10.5॥
पूर्व-प्रयोगा-दसंङ्गत्वाद्-बन्धच्-छेदात्तथा-गति-परिणामाच्च॥10.6॥
30, Apr 2025
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सिद्ध आत्माएँ कितनी परिधि में रहती हैं?
जम्बूद्वीप के बराबर
धातकी खण्ड के बराबर
पुष्करार्ध द्वीप के बराबर
ढाई द्वीप के बराबर *
मोक्ष तत्त्व के प्रकरण में हमने जाना
अरिहन्त अवस्था में प्राप्त होने वाला मोक्ष जीवन मुक्ति कहलाता है
और सभी कर्मों के अभाव में होने वाली मुक्ति संसार मुक्ति कहलाती है।
जो केवलज्ञान पूर्वक ही होती है।
सूत्र पाँच तदनन्तर-मूर्ध्वं गच्छत्या-लोकान्तात् में हमने जाना
सभी कर्मों के क्षय होने पर जीव ऊर्ध्व दिशा में ही गमन करता है।
कर्म के क्षय और ऊर्ध्व गमन में समय का अन्तराल नहीं होता।
कर्मो के नाश होते ही,
जिस स्थान से वह मुक्त होता है,
उसी स्थान पर,
उसी क्षण में,
सीधे ऊपर जाकर, उसके आत्मप्रदेश स्थित हो जाते हैं।
मोक्ष पैंतालीस लाख योजन प्रमाण ढाई द्वीप से ही होता है।
ठीक इसी के ऊपर सिद्ध शिला होती है।
जो होती तो लम्बी है पर उसमें सिद्धों का निवास इतनी ही परिधि में होता है।
जैसे ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ हमने अनन्त बार जन्म-मरण नहीं किया हो
वैसे ही ढाई द्वीप में भी ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ से कभी कोई सिद्ध न हुआ हो।
ऊर्ध्व लोक का उत्कृष्ट ऊपरी भाग मध्य लोक से कुछ कम सात राजू ऊपर है।
यह राजू मेरु पर्वत की जड़ से नापा जाता है।
मुक्ति होने और उस height पर जाकर विराजमान होने में कोई समय gap नहीं होता।
सूत्र में आ लोकान्तात् से उनके चलने की मर्यादा बताई गई है।
जहाँ तक लोक का फैलाव है, लोक का विस्तार है, वहाँ तक यह जीव चलेगा।
‘आ’ अव्यय मर्यादा के लिए प्रयोग किया जाता है।
मध्य लोक से ऊपर की ओर चलते हुए
सुमेरु पर्वत के ऊपर ऊर्ध्व लोक शुरू होता है
और ऊपर जाने पर कल्पवासी, वैमानिक देव, फिर कल्पातीत देव
और उनमें सबसे अन्त में सर्वार्थसिद्धि के देव आते हैं।
उनके विमान के ऊपर शिखरों पर ध्वजा लगी रहती है।
सिद्धशिला उस ध्वज दंड के सबसे ऊपरी भाग से बारह योजन दूर है।
उस बारह योजन gap में संसार की कोई चीज़ नहीं है,
किसी देव का निवास भी नहीं है।
भगवान उस सिद्धशिला पर भी स्थित नहीं होते।
क्योंकि लोक का अन्त सिद्धशिला से 7050 धनुष ऊपर होता है।
सिद्ध भगवान वहाँ स्थित होते हैं।
कोई भी चैतन्य पदार्थ शुद्ध अवस्था में केवल ऊर्ध्व गति ही करता है।
अशुद्ध अवस्था में पदार्थ
चारों दिशाओं में,
विदिशाओं में,
कहीं भी गति कर सकते हैं।
ऊर्ध्व गमन की शर्त सिर्फ शुद्ध आत्माओं के लिए होती है।
वे लोक के अन्त तक जाते हैं, इससे अधिक नहीं जाते।
इसमें भगवान का कोई role नहीं होता
कि कोई शक्ति उन्हें रोकती हो!
यह तो स्वाभाविक परिणमन है।
सिद्ध आत्माएँ शुद्ध होने के बाद भटकती नहीं हैं, घूमती नहीं हैं।
एक अन्य सदागति नामक मत मानता है कि
मुक्त होने के बाद उन्हें कुछ रोकने वाला नहीं बचा
इसलिए वे हमेशा चलते ही रहते हैं।
पर ऐसा नहीं होता।
वे एक स्थान पर जाकर ऊपर स्थित हो जाते हैं।
इसका कारण हम आगे जानेंगे।
सिद्ध भगवान भी लोक के नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
उनकी अनन्त शक्ति नियमों में मर्यादित होती है।
सभी द्रव्य लोक के अन्दर ही रहते हैं, बाहर नहीं।
अनन्त शक्तिमान होने के बाद भी वे उस नियम के अन्तर्गत ही रहेंगे।
ऊर्ध्व गमन चार कारणों से होता है जो हमने सूत्र छह पूर्व-प्रयोगा-दसंङ्गत्वाद्-बन्धच्-छेदात्तथा-गति-परिणामाच्च में जाने
इसमें सभी पद पंचमी विभक्ति में हैं,
जिसका प्रयोग हेतु बताने के लिए होता है।
पूर्व के प्रयोग से,
हर प्रकार के संग से रहित हो जाने से,
बन्धों के नष्ट हो जाने से,
और उसी प्रकार की गति होने का परिणमन यानि स्वभाव होने से
जीव ऊर्ध्व गमन ही करता है।